रविवार, 28 जनवरी 2024

जबाला के बहाने

      आख्यान कथाओं में जबाला एक सशक्त स्त्री रहीं हैं।वैदिक कालीन समाज में अपने पुत्र सत्यकाम को निर्भिक बना शिक्षा के लिए प्रेरित करनेवाली इन स्त्रियों की पहचान अनचिन्ही ही रही।जबाला की कथा से हमें परिचित करा रहें हैं लेखक राजेश प्रताप सिंह जी ।आइए पढ़ते हैं जबाल की कहानी....                                               


                                                        जबाला के बहाने


“आश्रम के मुख्य द्वार पर कौन है?” ऋषि हारिद्रुमत की गम्भीर आवाज़ वातावरण में गूंजी-

 “मैं हूँ ऋषि वर ! सत्यकाम जाबाल। आपसे ज्ञान प्राप्त करने हेतु आया हूँ।”  एक बालक आश्रम के मुख्य द्वार पर खड़े होते हुए बोला। 

“तो अंदर आ जाओ बाहर क्यों हो?”  आश्रम के भीतर से आवाज़ आई।

“ऋषिवर ! एक तो मैं अर्धरात्रि में आया था। फिर बिना आपकी आज्ञा के आश्रम में कैसे आता।”  सत्यकाम ऋषि के समीप आकर हाथ जोड़ कर अभिवादन करते हुए बोला। 

हूँsss,ऋषि ने कुछ सोचते हुए कहा - “तुम दिन में भी तो आ सकते थे बालक?"  

“ मैं दिन में गृह-कार्यों में अपनी माँ की मदद करता हूँ । आज सायं को जब मेरी माँ लोगों के घरों से कार्य करके वापस आयी तो उसने मुझसे कहा कि पुत्र तुम अभी ऋषि के आश्रम चले जाओ। मैं जिनके यहाँ परिचारिका का कार्य करती हूँ, उनके यहाँ अतिथि आए हैं। इसलिए मैं कई दिनों तक व्यस्त रहूँगी। माँ का कहा मानकर मैं घर से चल दिया और अर्द्ध-रात्रि में यहाँ आ पहुँचा। “

"ओह! क्या तुम्हारे पिता का नाम जाबाल है?” ऋषि ने पूछा।

“नहीं! मेरी माता का नाम ‘जबाला’ है।” सत्यकाम ने उत्तर दिया।

"तुम्हारे पिता जी क्या करते हैं? " ऋषि हारिद्रुमत ने पुनः पूछा।

"मैंने जब से होश सम्भाला, तब से मैंने घर में केवल अपनी माँ को देखा। मैंने माँ से एकाध बार पूछा तो वह इस प्रश्न को टाल गयी। "

कुछ सोच कर सत्यकाम ने ऋषि हारिद्रुमत से प्रश्न पूछा- “ ऋषिवर, मुझे एक बात पूछनी है। यदि आपकी अनुमति हो तो निवेदन करूँ।” 



बोलो वत्स। “क्या मेरी माता को अपना नाम मुझे देने का अधिकार नहीं है ,क्या वह मुझे अकेले पढ़ा -लिखाकर मेरी देख-भाल नहीं कर सकती?” सत्यकाम विनीत भाव से बोला। 

सत्यकाम की बातें सुन ऋषि हारिद्रुमत  ने हँसते हुए कहा- “नहीं वत्स, ऐसा नहीं है। संतान पर पहला अधिकार जननी का ही होता है।” 

“फिर क्यों लोग मेरे साथ न तो खेलना चाहते हैं और न बात करते हैं।” सत्यकाम ने दुखी होते हुए कहा।

ऋषि ने कहा-“जिनके पास अंतर्दृष्टि, प्रेम और सहवेदना का अभाव होता है उनके अंदर स्वतः स्वार्थपरता आ जाती है, वही ऐसा करते हैं।” “वत्स तुम रात्रि से बिना कुछ खाए-पिए हो। दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर कुछ खा लो, फिर आराम से बातें करेंगे।” 

यह कहते हुए उन्होंने अपनी भार्या को आवाज़ दी और कहा- “देवी! तनिक सुनो, एक नन्हें बटुक आएँ है। इनका भी प्रात रास तैयार कर दो। तीन प्रहर बाद इन्हें भी अन्य बटुकों के साथ कक्षा में भेज देना।” 

“अरे! यह तो बहुत सुंदर बालक है। अवश्य अपनी माँ पर गया होगा। चलो बेटा स्नानादि कर लो। फिर तुम्हें श्री अन्न की रोटी और काली गाय का मक्खन देती हूँ।”  कहते हुए ऋषि-भार्या उसे कुटिया में ले गईं।



 तीन प्रहर बाद सभी बटुक आश्रम के अंदर बरगद के वृक्ष के पास एकत्रित हो गए। ऋषि आकर बरगद के पास बने चबूतरे पर बैठ गए। अपनी धीर-गम्भीर वाणी में बोलना शुरू किया- “ शिष्यगणों! आप लोग अगले एक माह तक यहाँ रहेंगे और समस्त कार्यों में सहयोग प्रदान करते हुए अपने दैनिक कार्यों को पूरा करेंगे। भोजन तैयार करने में भी अपनी माता का न केवल सहयोग करेंगे वरन बनाना भी सीखेंगे। एक माह बाद आपकी योग्यता के आधार पर आगे ब्रह्म-ज्ञान की शिक्षा दी जाएगी। "कहकर ऋषि उठ गए। 

सभी नए बटुकों को आश्रम के सहायकों ने कार्य बता दिया। बटुक अपनी इस प्रथम परीक्षा में पूर्ण मनोयोग से लग गए। एक माह के बाद ऋषि ने सर्वप्रथम सत्यकाम को अपने पास बुलाया और पहले से अलग की हुई चार सौ कृशकाय गायो को दिखाते हुए कहा- “हे सत्यकाम, इन गायों को लेकर जंगल में जाओ और इनकी सेवा करो। जब ये सभी स्वस्थ हो जाएँ, तब लेकर आना।” 

जैसी आज्ञा गुरुवर! कह कर सत्यकाम उन गायों के पास चला गया। गायों को जंगल ले जाते हुए उसने कहा- “गुरुदेव! मैं इन गायों के एक हज़ार होने पर ही वापस आऊँगा।” 

सत्यकाम गायों को लेकर अंदर घने जंगलों में चला गया। कई साल बाद जब उनकी संख्या एक हज़ार हो गयी, तब उन्हें लेकर धीरे-धीरे वापस आने लगा। एक दिन सायंकाल सभी गायों और उनके बछड़ों को चारा देने के बाद अग्नि प्रज्ज्वलित कर, संध्या वंदन हेतु पूर्वाभिमुख हो बैठा। उसी समय उसके मन में विचार आया कि मैं जहाँ भी गया, हर जगह पवन व्याप्त है। पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, अंतरिक्ष और द्युलोक सर्वत्र पवन है। कहीं यही ब्रह्म का रूप तो नहीं,या यही ब्रह्म तो नहीं? इस पर मनन करते ध्यानावस्था में कब सूर्य की रश्मियाँ उसके चेहरे पर दस्तक देने लगीं,उसे पता ही नहीं चला। जब आँखे खुली तो सत्यकाम का चेहरा एक अनोखी आभा से परिपूर्ण था। 


अगले दिन सायंकाल जब वह ध्यान में बैठा तो एक नया विचार उसके मन में कौंधा। यह सही है पवन सर्वत्र व्याप्त है परंतु बिना अग्नि के हम उस परम सत्ता के बारे में समझ नहीं सकते। पृथ्वी पर अग्नि ही उस प्रकाश का प्रतीक है। इस पर मनन करते हुए कब प्रातः क़ालीन पक्षियों का कलरव वातावरण में गूँजने लगा उसे पता ही नहीं चला। जब उसकी आँखें खुली तो उसके चेहरे पर आत्म-संतुष्टि का भाव था। एक नई ऊर्जा के साथ वह दैनिक कार्यों मैं व्यस्त हो गया। उसे यह आत्म दृष्टि हुई कि ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है वरन अनंत भी है। उसे यह आत्मदृष्टि हुई कि ब्रह्म ना केवल सर्वव्यापी एवं अनंत है,वरन स्वतः प्रकाशवान भी है।

गायों को चारा खिलाकर वह आश्रम की ओर चल दिया। जब आश्रम से सत्यकाम लगभग एक योजन की दूरी पर रह गया तो सूर्यदेव पश्चिम में अस्ताचल की ओर प्रयाण करने लगे। सत्यकाम ने निश्चय किया कि अब आज यहीं विश्राम कर लिया जाए और कल गुरुदेव के दर्शन किया जाएगा। 


पूर्व की भाँति आज जब वह सायं को ध्यानावस्थित हुआ तो सम्पूर्ण व्यापकता, अनंतता एवं द्युतिमान होने के साथ-साथ उसे यह भी बोध हुआ कि वही सत्ता मेरी प्राण-वायु और अंतः चतुष्टय में भी व्याप्त है। इस ज्ञान के साथ वह कब समाधिस्थ हो गया, उसे पता ही नहीं चला। प्रातः जब वह उठा तो उसके चेहरे पर असीम शांति और प्रकाश का अद्भुत समन्वय परिलक्षित हो रहा था। दैनिक कर्मो को कर  गायों को चारा आदि देकर वह आश्रम की ओर चल पड़ा। सायंगोधूलि बेला तक वह आश्रम पहुँच गया। गायों को नियत स्थान पर कर के सायंकल की पूजा आदि समाप्त कर वह गुरुवर के चरणों में अभिवादन हेतु उनके पास पहुँचा। अभिवादन कर वह कुछ निवेदन करनेवाला ही था कि ऋषिवर उसके चेहरे की ओर देखकर कुछ सोचते हुए बोले- “वत्स आज तुम थके हो। कल प्रातः दैनिक पूजा आदि कर मुझसे मिलो।” 

“जैसी आज्ञा ऋषिवर।” कहकर सत्यकाम विश्राम हेतु कुटिया में चले गया। अगले दिन जब वह ऋषि के पास मिलने आया तब ऋषि उसकी ओर देखते हुए बोले- “ सत्यकाम, तुम्हारे चेहरे के तेज से ऐसा लगता है कि तुम्हें ब्रह्म-ज्ञान का बोध हो चुका है। अब तुम बताओ क्या रहस्य है?” 

सत्यकाम विनत होकर बोला-“ ऋषिवर, जब मैं गायों को लेकर वापस आ रहा था तो चार रात्रि लगातार मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि स्वयं अग्नि देव मुझे ब्रह्म-ज्ञान दे रहे हों। परंतु मेरी माता और विद्वत जन यही कहते हैं कि यह ज्ञान गुरु के बिना सम्भव नहीं है। इसलिए आप मुझे यह ज्ञान दीजिए। मैं आपको अपना पूरा अनुभव सुनता हूँ।” यह कहकर सत्यकाम ने अपना पूरा अनुभव ऋषि को बता दिया। ऋषि हारिद्रुमतद्रु अत्यंत प्रसन्न हुए और सत्यकाम को समस्त ब्रह्मज्ञान फिर से बताया। आगे चलकर कर सत्यकाम ने एक गुरुकुल की स्थापना की। 


        राजेश प्रताप सिंह

        सेवा निवृत्त आई. पी. एस

        आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश)







        

गुरुवार, 14 सितंबर 2023

गोलेन्द्र पटेल की कविताएँ

युवा किसान कवि गोलेन्द्र पटेल की 8 कविताएँ :-

1).

जोंक
•••••••••••••••••

रोपनी जब करते हैं कर्षित किसान ;
तब रक्त चूसते हैं जोंक!
चूहे फसल नहीं चरते
फसल चरते हैं
साँड और नीलगाय.....
चूहे तो बस संग्रह करते हैं
गहरे गोदामीय बिल में!
टिड्डे पत्तियों के साथ
पुरुषार्थ को चाट जाते हैं
आपस में युद्ध कर
काले कौए मक्का बाजरा बांट खाते हैं!
प्यासी धूप
पसीना पीती है खेत में
जोंक की भाँति!
अंत में अक्सर ही
कर्ज के कच्चे खट्टे कायफल दिख जाते हैं
सिवान के हरे पेड़ पर लटके हुए!
इसे ही कभी कभी ढोता है एक किसान
सड़क से संसद तक की अपनी उड़ान में!

रविवार, 25 दिसंबर 2022

कहानी

                                                            मित्रता



चंद्रकला त्रिपाठी


 भूगोल विषय की कक्षा में अध्यापक के प्रवेश करते ही विनय उठ कर कक्षा के बाहर जाने को उद्यत हुआ। विनय सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था। बहुत मेधावी था वह। कक्षा में हमेशा आगे की पंक्ति में बैठता।आज भी वहीं बैठा था इसलिए उसे उठ कर जाते हुए पूरी कक्षा ने देख लिया था।
 आज भी कई सहपाठियों के चेहरे पर उसके लिए व्यंग्य पूर्ण मुस्कान थी। मगर नवल उदास था। वह असहायता पूर्वक विनय को सिर झुकाए कक्षा से बाहर जाते देखता रहा।विनय का कातर और फीका पड़ा सा मुंह उसके भीतर एक रुलाई जैसी पैदा कर रहा था।वे गहरे मित्र थे।साथ खेलते और  स्कूल बस से साथ ही आते जाते थे।विनय के कारण ही वह जिले में शतरंज का सर्वोत्तम खिलाड़ी बना था। उसके लिए ही विनय ने प्रतियोगिता में भाग नहीं लिया था।नवल को याद है कि उसके प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए ज़िद करने पर विनय ने हंस कर कहा था कि तब तो उसे हार जाना पड़ेगा क्योंकि वह नवल को चैंपियन बनते देखना चाहता है।
 ऐसा क्या हो गया है कि विनय अब उससे दूर दूर रहता है। उसकी तरफ उदास सा देखता है और किसी और तरफ देखने लगता है।
 उसने तो पूछा भी था।
 वह कुछ नहीं हुआ है ऐसा कह कर टाल गया था।
 इन दिनों उसके पास किताबें नहीं होती हैं। अभ्यास पुस्तिकाएं भी नहीं होती हैं। भूगोल विषय के अध्यापक बहुत ही अनुशासन प्रिय हैं। उन्हें कक्षा में पुस्तकें न लेकर आने वाले विद्यार्थी लापरवाह लगते हैं। पिछले दिनों उन्होंने विनय को सचेत किया था कि अगर वह किताबें लेकर नहीं आएगा तो इसे वे उसकी उद्दंडता समझेंगे।तब उसे कक्षा में आने की आवश्यकता नहीं है।

 उन्होंने विनय को कक्षा के बाहर जाते देखकर कहा कि इसका अर्थ विनय की अनुशासन हीनता है और अब उन्हें प्रधानाध्यापक से उसकी शिकायत करनी पड़ेगी।
 विनय ठिठक गया था।
 उन्हें देख उठा था वह।
 पूरी कक्षा यह देखकर स्तब्ध हो गई।
 नवल का उस दिन क्लास में मन नहीं लगा।
 वह सोचता रहा कि क्या उसने सचमुच यह जानने का प्रयत्न किया है कि विनय ऐसा क्यों कर रहा है।वह बहुत अमीर नहीं है मगर इस अच्छे स्कूल में अपनी प्रतिभा के कारण उसे दाखिला मिला है। उसके अंक हमेशा सबसे अच्छे आते रहे हैं। गणित की कक्षा का तो वह हमेशा नायक रहा है। इस समय भी गणित के अध्यापक अख्त़र हुसैन जी उसकी क्षमता के बड़े प्रशंसक हैं। उन्होंने उसे अपनी पुस्तकें दे दी हैं और वे शायद उसकी स्थिति के बारे में जानते हैं।
 नवल को दुःख है कि वह पक्की मित्रता के बावजूद सब कुछ क्यों नहीं जानता।
 उसने तय किया कि उसे विनय की परिस्थिति के बारे में सब कुछ जानना ही है।
 घर आकर उसने अपनी मां से विनय के विषय में सब कुछ बताया।
 नवल के रुआंसे उदास चेहरे को देखकर वे दुःखी हुईं।
 शाम को उसके पिता के घर लौटने के बाद इस समस्या पर विचार किया गया। उसके माता पिता को लगा कि संभवतः विनय का परिवार किसी आर्थिक संकट में आ गया है।कोरोना महामारी के बाद कई परिवार ऐसे अनिष्ट को झेल रहे हैं।हो सकता है कि विनय के परिवार में भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ हो।वे विनय के विषय में अधिक नहीं जानते थे क्योंकि पारिवारिक स्थिति के बारे में तो नवल भी नहीं जानता था मगर विनय का घर कहां है यह वह अवश्य जानता था।


विनय और उसकी बड़ी बहन उन्हें देखकर चकित हुए मगर फिर आवभगत में जुट गए। थोड़ी देर में ही वहां एक स्त्री आई  और उनके पास बैठ गई। सौम्या,विनय की बहन ने बताया कि वे उनकी मां की मित्र हैं और उनके साथ ही रहती हैं।
घर में बड़ी उदासी थी।
विनय के माता पिता नहीं दिख रहे थे।
थोड़ी देर में ही उन्हें पता चल गया कि ढ़ाई साल पहले एक भयानक बस दुर्घटना में दोनों की मृत्यु हो गई थी। पिता एक निजी उद्यम में काम करते थे जिससे कुछ धन मिला अवश्य किंतु उससे उन्होंने इस घर का बैंक से लिया गया ऋण चुका दिया। मां की मित्र का भी दुनिया में कोई नहीं है।वे इस घर के नीचे के तल पर एक सिलाई कढ़ाई का स्कूल चला रही हैं और सौम्या जो उस वक्त आईआईटी खड़गपुर में इंजीनियरिंग के दूसरे वर्ष में थी, अपनी पढ़ाई छोड़ कर लौट आई है और वे अब किसी तरह विनय की पढ़ाई की व्यवस्था कर पा रहे हैं। उन्हें पता है कि फीस देने के बाद इस वर्ष की किताबें इत्यादि खरीदने में उन्हें थोड़ा वक्त लग रहा है।
विनय ने जैसे उन लोगों को आश्वस्त करते हुए बार बार कहा कि आज उसके पास सभी किताबें आ गई हैं।अख़्तर सर और संदीप सर ने इंतज़ाम कर दिया है।कल से उसके पास सब किताबें होंगी और उसे इस कारण कोई दंड नहीं मिलेगा।
विनय नवल के आने से हर्षित था।
बार बार उसे आश्वस्त कर रहा था मगर नवल की उदासी यहां आकर बढ़ गई थी।
उसकी मां ने सौम्या को गले से लगा लिया था। खूब स्नेह कर रही थीं वे।
सौम्या ने उनसे बार बार कहा भी कि उसे कोई दिक्कत नहीं है मगर नवल की मां ने पूछ लिया - ' फिर तुमने अपनी पढ़ाई क्यों छोड़ दी बिटिया!'
सौम्या हिचकिचा गई।
वस्तुत: वह किसी से मदद नहीं लेना चाहती थी,ऐसा लगा।
उसका परिवार आर्थिक रुप से बहुत मजबूत नहीं था मगर बहुत स्वाभिमानी था।वे सभी अपने प्रयत्न से इस परिस्थिति का सामना करना चाहते थे।

अपनी बहुत कम हो चुकी आय में वे मिलजुल कर कटौती पूर्वक काम चला रहे थे।
सौम्या ने बताया कि वह पास के ही एक ट्यूशन केंद्र पर आठवीं कक्षा तक के बच्चों के लिए गणित पढ़ा रही है और कुछ पैसा जुट जाने पर फिर से आईआईटी की प्रतियोगिता में भाग लेगी और अपनी शिक्षा पूरी करेगी।
नवल के माता पिता उसके आत्मविश्वास और संघर्ष से बहुत प्रभावित हुए।
वे दोनों भाई बहन आत्मसम्मान की आभा से दमक रहे थे।
नवल ने बहुत उम्मीद से भर कर मां की ओर देखा तो पाया कि वे उसको भरोसा दिलाती हुई मुस्कुरा रही थीं।उन दोनों ने सौम्या और विनय का अभिभावक बन कर उनकी शिक्षा में योगदान करना तय कर लिया था।
सौम्या के हिचकने पर नवल के पिता ने कहा कि हमारी मदद तुम्हारे ऊपर कृपा नहीं है बल्कि हमारे देश में कई ऐसी मददगार योजनाएं हैं,संबल हैं जिनके बारे में तुम लोग नहीं जान पाए हो।जब तक उस स्तर पर कुछ संभव नहीं हो पाएगा हम लोग तुम्हारे लिए सब कुछ ऐसे ही करेंगे जैसे नवल के लिए करते हैं। इसमें हमें खुशी होगी।
नवल के दिल पर से एक बहुत बड़ा दुःख हट रहा था।
वह यह बताता हुआ रो पड़ा था कि कैसे कक्षा के अन्य साथी विनय की परिस्थिति न जानते हुए उसका मज़ाक उड़ाया करते हैं।
उसकी मां ने उसे विनय सहित अपने अंक में ले लिया और कहा - 'अन्यथा कुछ न सोचो।वे कुछ जानते नहीं इसलिए ऐसा करते हैं। देखना उन्हें उसके संघर्ष का ज्ञान होगा तो वे इस पर गर्व करेंगे '

सचमुच उन्होंने ठीक कहा था।
एक दिन आया जब पूरी कक्षा ने विनय के लिए खड़े होकर ताली बजाई।
विनय ने गणित विषय में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर पूरे देश का नाम किया था।
उसकी बहन आईआईटी खड़गपुर की सबसे योग्य विद्यार्थी के रुप में आगे पढ़ रही थी।
 नवल को गर्व था कि उसने मित्रता में मनुष्यता की विजय को हासिल किया है।



परिचय

प्रोफेसर चंद्रकला त्रिपाठी सुप्रसिद्ध कवयित्री हैं। उनके दो कविता संग्रह क्रमशः ‘वसंत के चुपचाप गुजर जाने पर’ तथा ‘शायद किसी दिन’ बेहतरीन संग्रहों में से हैं। इससे इतर गद्य की उनकी पुस्तक ‘इस उस मोड़ पर’ पिछले वर्षों में काफी चर्चित रही। 
पूर्वग्रह , शब्दयोग ,  चौथी दुनिया , परिकथा ,सुलभ इंडिया आदि पत्र -पत्रिकाओं  में कहानियाँ प्रकाशित।



एक प्रतिबद्धता थी कि न ई कलम को गाथांतर का मंच जरुर मिले।सामने विशाल साहित्य जगत है जिसमें से निरन्तर कुछ उम्मीदें तलाशती रही हूँ।उसी क्रम में प्रतिभा का नाम आता है।पेशे से शिक्षिका प्रतिभा की एक लघु कथा आज गाथांतर ब्लाग पर प्रस्तुत है

' फर्क ' -

------एक लघुकथा

सुबह कामवाली माधुरी देर से आई और आते ही सिर झुका के बर्तन साफ करने लगी । उसके ब्लाउज के बाहर ,पीठ पर लाल चकत्ते उभरे देखकर रागिनी उससे पूछ बैठी । "माधुरी , ! क्या आज फिर मारा तुम्हारे आदमी ने "??? माधुरी सिर झुकाये ही बोली , "हाँ बीबी जी , दारू के नशे में बौरा जाता है , और फिर ना मुझे पहचानता है और ना बच्चों को ", अपनी फ़टी हुई साड़ी के पल्लू को हटा कर चोट के लाल काले निशान दिखने लगी वह। "माधुरी कितनी बार तुझसे कहा है कि , जब वह तुझ पर हाथ उठाये तो हाथ में जो भी आये खींचकर तू भी मार "। नहीं मार पाती तो उस आदमी की रिपोर्ट कर दे , चार दिन थाने में बन्द रहेगा और पुलिस का डंडा पड़ेगा तब सारी अक्ल ठिकाने आ जायेगी "। "बीवी जी मर्द है मेरा ...! जैसा भी है मेरा और बच्चों का पेट तो भर रहा है ।जेल चला जायेगा तो मेरे छोटे छोटे बच्चे भूखे मर जायेंगे। बिन मर्द की लुगाई पूरे गाँव की भौजाई होती है बीवीजी"। "तू बनी रह पति व्रता । और ऐसे ही मार खाना जीवन भर । तुम 'छोटी औरतें ' अपने लिए लड़ना ही नहीं जानती ।तुम्हारी नियति में बस पीटा जाना ही लिखा है । हुंह ...!" "जिस दिन उसे छोड़ दूँगी पूरी दुनिया मुझे ठोकर मारेगी बीवीजी। 'सड़क का पत्थर बनने से , आँगन का पत्थर बन कर रहना बेहतर होता है ना बीवीजी '।" माधुरी दार्शनिक की भांति बोली। ****** आजकल रागिनी के पति मिस्टर महेश अक्सर देर से आते हैं ।कभी कभी नशे में धुत और बाहर खाना भी खाकर आने लगे थे । आज भी उन्हें आने में देर हो गयी । "मैं खाना खाकर आया हूँ रागिनी "। महेश घर में घुसते ही बोले। " यदि आपको खाना बाहर ही खाना रहता है तो कम से कम एक कॉल तो कर देते "। "आज फिर इतनी ज्यादा शराब पी है आपने ?? अपना नहीं तो बेटू का ख्याल किया करिये वह बड़ा हो रहा है ।आपको इस हाल में देखकर उस पर गलत असर पड़ता है "। रागिनी आवाज थोड़ी ऊँची करके बोली। "व्हाई यू आर सो एंग्री डार्लिंग .? यू नो आई एम् अ बिजनेस मैन ।और बिजनेस में इतना चलता है जान ।" महेश , रागिनी को बाँहों में भरकर उसके होंठो पर होंठ रखते हुए बोले । शराब का एक तेज भभूका रागिनी की नाक से टकराया ।उसे उबकाई आने लगी ।उसने महेश को तेजी से परे हटाया जिससे महेश लड़खड़ाते हुए बेड पर गिरे और उनका सिर बेड के सिरहाने से टकरा गया । "यू बिच ..!! साली मुझ पर हाथ उठाती है । मैं खिलाता हूँ , पहनता हूँ , ये आलिशान बंगला , गाड़ी , सब मेरी कमाई से है ।" महेश ने उसकी गर्दन पर अपने नाखून गड़ा दिए । रागिनी गिड़गिड़ाई "महेश छोडो दर्द हो रहा है "। "हरामजादी ..! तेरी महंगी साड़ियां और ये ब्रांडेड लिपस्टिक मेरे पैसों की है ।" महेश उसके होंठो को अंगूठे से रगड़ते हुए बोला । वह बड़बड़ाये जा रहा था । "दो कौड़ी की लौंडी तेरे जैसी सैकड़ों रख सकता हूँ मैं ।तू आजकल बहुत उड़ने लगी है, आज तुझे बताता हूँ दर्द क्या होता है ।" यह कहते हुये महेश ने अपनी बेल्ट निकाली और रागिनी को जमीन पर गिरा कर पीटने लगा। रागिनी गिड़गिड़ाती रही , लेकिन नशे में डूबे महेश ने उसे तब तक पीटा जब तक वह थक नहीं गया । आज रागिनी का उच्च शिक्षित , बड़े घर की बेटी, बहू , होने का दर्प चूर चूर हो गया। उसकी सोच के दायरे में उसमें और माधुरी के बीच की औरत का 'फर्क 'समाप्त हो गया था ।। ******

प्रतिभा श्रीवास्तव
आज़मगढ़

शनिवार, 24 दिसंबर 2022

कविताएँ

                                              रवि शंकर सिंह की कविताएँ





       (1)
किस्सा बच्चों का
------
तेज धार -सी
हड्डियों को छेदती
इन सर्द हवाओं से बचने के लिए
आओ घेर लो
इस अलाव को

बचपन की बहुत सारी कहानियाँ
जुड़ी हैं इस आग से
कहा था एक बार
एक किस्सागो में
हमारा ईश्वर कैद है
किसी अजाने मुल्क में
जिसे आज तक 
छुड़ा नहीं पाया किसी ने
उनकी शर्तों के मुताबिक

कितना फर्क है आज
जब हम समझते हैं झूठ -सच को
तब कोई किस्सागो
मनगढ़त कहानियाँ नहीं सुनाता
यह कहकर
साफ मना कर देता है
कि तुम एक देशद्रोही हो

छोड़ों बच्चों
बताओ 
क्या सुनाऊँ तुम्हें
उस जंगल की कहानी
जहाँ से विस्थापित हो गये जानवर
पेड़ काट दिये गये
जला दिये गये पत्ते
मोड़ दी गयीं
नदियों की राहें
पहाड़ का सीना चीरकर

कहना भी नहीं
सुनाने को उस राजा की कहानी
जिसने कर के रूप में
लाया था ऐसा कानून
खून देने की घोषणा की गयी थी
जनता को खून से
देश की लचर आर्थिक व्यवस्था को
मजबूत बनाने की
शपत ली गयी थी
उनसे माँगा गया था
प्रत्येक घर से थोड़ा -थोड़ा राष्ट्रवाद
और इंकार करने पर
दुश्मनों के लश्करों में 
जाने का दिया गया तथा आदेश

क्या देख रहे हो बच्चो
बिल्कुल आसमान साफ है
चाँद -सितारे छुपे हैं बादलों में
दादी की कहानियों के देवी -देवता
अब नहीं आते धरती पर
हर एक हत्या का 
गवाह होते हैं देवी-देवता
जो ऊपर से देखते हुए
नहीं उतरते जमीं पर
अदालत में गवाही देने
आखिर किससे डरते हैं
आखिर वह कौन है
जो खत्म कर देगा उनका अस्तित्व

क्या सुनाऊँ
उस जादूगर की कहानी
जो रहता है
एक बड़े से सोने के महल में
महल की सुरक्षा में
बड़े-बड़े आदमखोर हैवान खड़े हैं
खेल दिखता है दिन में
और रात में
गायब कर देता है उनके
गाँव -शहर को

मैं कोई कहानियाँ नहीं सुनाऊँगा
जिसमें राजा-रानी ,जादूगर और कोई जंगल हो
मिटा दो उन कहानियों को
खुद बनो कहानी का हिस्सा
और बन जाओ नायक
खुदमुख्तारी ही बचा सकती है
तुम्हारा बजूद !

(2)

उड़ान
-----
कोशिश करता हूँ समझने की
क्या है
मेरे अंदर जो हलचल पैदा कर रहा

उसके चले रास्ते पर
उगे पावों के निशान को
क्यों तलाश कर
रंग भरता हूँ उनमें
लाल,हरे ,गुलाबी
नापता हूँ अपने पैरों से
उनके रंग -बिरंगे पैरों के आकार

कक्षा में व्यख्यान देते हुए
भूल जाता हूँ विषय-वस्तु 
और ढूंढ़ने लगता हूँ
किताबों में रखी 
फूल की सूखी पंखुड़ियों में
उसकी देह की महक

किसी दिन
पंछी बनकर
उतर जाऊँगा धीरे -धीरे 
उसकी आत्मा के वृक्ष पर
वहीं मैं छोड़ दूँगा
 थोड़ा -सा पंख !
(3)
 शिकार
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सांसों को रोकना
कुछ देर जरूरी लगता है
इससे अंदाजा लग सकता है
कितनी देर
अगर नदी में डूबने लगे 
तो जिंदा रह सकते हैं

जटिल समय में
प्रयोग जारी रखना
समय के साथ चलना माना जाता है
इसके कई प्रमाण
विशेषज्ञों की फाइलों से
आजकल झाँक रहे हैं

जो कभी पानी मे उतरे नहीं
उनका विश्वास है
साथ मजबूरी भी
इससे तो कम-से -कम 
नदी में बहते हुए जीवों
के बारे में समझ लेंगे
हुनर सीख लेगे
पानी में हाथ-पैर चलाने की
पत्ते पर तैर रही चींटियों से
बतिया लेंगे कुछ पल
कि उसने कैसे बनाई है पत्ते की नाव

सीखने के दरमियाँ भूल गया
कि मैंने देखा था
नदी को पैरों से नापने वाले का 
अचानक एक पैर
मगरमच्छ का निवाला बनते

हमें बताया गया
ज्ञान फर्जी था
मुझे पता तब चला
जब नदी के तट से
इस वारदात को देखा

गरीबों की चमड़ियों से बनी नाव में
बैठा मलाह
ही कातिल था
ना जाने कितने लोगों को
डूबा दिया बीच में

नदी को पार करने के लिए
भाड़े की बोली लग रही थी वहाँ
उनके दिमाग में उपजा गलत सवाल
मेरे सामने सपना बनकर उभर रहा था
और मैं गलत सपने का शिकार बन बैठा !






(4)

लौट आओ
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लौट आओ
सम्हालों अपने साम्राज्य को
जब से तुम गये हो
वे तुमसे धीरे-धीरे रूठ रहे हैं
जिन्हें तुमने बसाया था अपनी हाथों

देखता हूँ
उस नन्हें से पौधे को
जब भी उसके करीब जाता हूँ
मुझे निहारता है टकटकी लगाकर
मेरे आँखों में ढूंढता है
तुम्हारे आने की खबर
मेरी पलके छुपा लेती हैं
सच्चाई जिसे मैं कह नहीं पाता
क्या जवाब दूँ
उस नन्हें से पौधे को

जिसका इंतजार करते थे तुम
देखते थे रोज उसकी राह
वह डाकिया आया था कल
लेकर तुम्हारे लिए चिट्टी
वह चिट्टी तुम्हारे बिछड़े हुए दोस्त की है
जिसका जिक्र रोज करते थे तुम
चाय की चुस्की लेते हुए
कागज के टुकड़े में लिखे शब्द
जवाब माँगते हैं तुमसे
बोलो क्या लिखूँ ?

आकर देखो
खाली लगता है घर का कोना -कोना
अब तो दीवारों पर
दीमक लगने लगी हैं
कमजोर कर रहीं दीवारें

हवा में उड़ रहे धुल के कण
जमीन के फर्श पर
धीरे-धीरे उतर रहे हैं
और उससे बनी डरावनी आकृति
मुझे डरा रही

कैसे रोकूँ
इस फूहड़ अहसास को
जो मेरे हृदय में
रफ्ता-रफ्ता टिसटीसा रहा हैं

इस कंपकपाती ठंड में
मुठ्टी में क़ैद किये 
सीने से लगाये
सबकी राहत के लिए
लौट आओ ,लौट आओ मेरे दोस्त
थोड़ी -सी गर्मी लेकर

(5)

भटकाव
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आजकल रात भी
जी चुराती मुझे देखकर

आधी रात को 
जब मेरी नींद टूटी 
सूरज सो चुका होता

बलरेज पर आकर देखता हूँ
आसमान की ओर
कि कहीं दिख जायें चांद-तारे

लेकिन आसमान ने
बादलों को चादर बनाकर
ओढ़ लिया है

ऐसी रात को नाम देता हूँ
शांत रात
गली में
आवाज भी नहीं आ रही कुत्तों के भौंकने की
सड़कों पर गुजरने वाली गाड़ियाँ
अपनी मंजिल पर पहुँच गईं जल्दी

अरे !पगली कहाँ गई
जो गंदी मोटरियों के साथ
सोया करती थी सड़क के किनारे
क्या हो गया है मुझे 
जो इन सबों को ढूंढ रहा हूँ मैं

अब जुगनू की चमक फीकी पड़ने लगी
लौटना चाहिए मुझे
काँटों भरे बिस्तर पर
वहीं सुनूंगा
मुर्गों के बोलने की आवाज !



परिचय
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रवि शंकर सिंह
जन्म-04/01/1992
शिक्षा -स्नातकोत्तर (समाजशास्त्र),यू.जी.सी.नेट,पी-एच.डी.
प्रकाशन- एक कविता संग्रह 'बाकी सवाल'
जनपथ,वागर्थ ,समहुत, छपते -छपते,अमरावती मंडल,अहा! जिन्दगी ,नवलेखन अंक वागर्थ ,परिकथा ,कथा,करुणावती, इरावती ,रेवांत और हिमतरु पत्रिका में कविताएँ प्रकाशित।विभिन्न पत्रिकाओं में रेखाचित्र,रिपोर्ट्स ,लेख और समीक्षाएँ प्रकाशित।

सम्प्रति -  साहित्यिक पत्रिका जनपथ के सम्पादकीय विभाग से सम्बद्ध।

सम्पर्क- द्वारा -नरेन्द्र कुमार सिंह
रुद्रापुरी, मझौआं बाँध         
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मो.न.-09931495545
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