सोमवार, 30 जून 2014

!! सुनो मलाला !!

सुनो मलाला
सुनाने हैं तुम्हें
कुछ सच
कड़वे ..... बहुत कड़वे !!

बताना है तुम्हें
कि तुम अकेली नहीं हो..
बहादुर..! जुझारू..!! जांबाज़..!!!
तुम्हारी सरीखी हैं तमाम.
जिधर भी नजर दौड़ाओ..
मिल जायेगी कोई 'मलाला'.

यकीन जानो
तुम्हें ये बताने के पीछे
इरादा
तुम्हें कम आंकने का बिल्कुल नहीं
ना ही
तुम्हारे साहस पर
कोई सवाल ही है.

बेशक!
तुमने तालिबान के खिलाफ
उठाई ऊंची आवाज
दिखाया उसे ठेंगा
पर क्या पता है तुम्हें..
बहुत सारी लड़कियां
जाने कितनी ही स्त्रियां
कमोवेश तुम्हारी तरह ही जूझ रही हैं
हर रोज
अपने जीवन में ...'तालिबान' से!

तुम सुन रही हो ना मलाला?
वो सभी कर रही हैं सामना
अपने आस-पास मौजूद दहशतों का.

हर रोज
उनकी राहों में बिछाई जाती हैं
तमाम बारूदी सुरंगें
हर घड़ी तनी रहती हैं उन पर
नियमों/ प्रतिबंधों/अपेक्षाओं की बंदूकें!
वर्जनाओं से बंधी ये औरतें
जूझ रही हैं तुम्हारी तरह
कट्टरता से
रूढ़ियों से
बजबजाती हुई मानसिकता से
और
जबरन थोपी गई जिम्मेदारियों से भी!

कभी तेजाबी हमला झेलती
तो कभी अजन्मी बेटी के हक के लिये लड़ती
कभी अपने आत्मसम्मान के लिये जूझती
तो कभी
अपनी देह की रक्षा के लिये संघर्ष करती!
ये सब भी
तुम्हारी तरह ही चाह रही हैं
एक बेहतर कल
अपने-अपने दायरों में!

क्या तुम ये जानती हो मलाला?
इनमें से कई
खो बैठती हैं
इस जंग में जिंदगी अपनी
बिल्कुल गुमनाम !

न तो उन्हें तमगा हासिल होता है
न मिलता है कोई सम्मान
पर यकीन मानो
इससे कम नहीं होती सार्थकता उनकी
या
उनके हिस्से की लड़ाई की!

मलाला..
बेशक तुम मिसाल हो जमाने के लिये
पर मशालें और भी हैं
जो जल रही हैं
रौशन करने को ये जहां
यकीनन..
तुम अकेली नहीं हो...!

अर्चना शुक्ला चक्रवर्ती

सोमवार, 23 जून 2014

                                                             "ख्वाब "
                                                   



मैँ अक्सर एक ख्वाब 
बुनती हूँ
कि 
जिन्दगी सवा सात मीटर के
पारंपरिक लिबास से
सिमट कर सवा तीन मीटर के
पैँट सर्ट मेँ साँस लेती
और मैँ अक्सर अपने मौन
विरोध को मुखर कर
बंद धमनियोँ मेँ
सुखद तृप्ति का संचार करती


सोनी पांडे 

शनिवार, 21 जून 2014


                                         "रिश्ता "




मन्नतों में लपेटे थे जो 
मौली के कच्चे धागे 
प्रेम से बाँधने को 
आशा के सभी उपहार 
वही लाल-पीले धागे 
खो बैठे हैं आज अपने 
चटख रंगों की चमक 
पहली ही बारिश में

- शिखा

शुक्रवार, 20 जून 2014

" आँखे "

किस -किस को हम पढ़े 
किस -किस को हम बताये 
हर आँख पर लिखी है 
कई अलिखित कथाएँ 

कुछ मुस्कुराती आँखे 
हर बात बोले देती 
खिलखिलाती आँखे 
हर राज खोल देती
छिपती है कब किसी से
दिल में भरी वफायें

बेचैन आत्मा सी जो
इधर-उधर डोलती है
है टनो बोझ पलकों पर
जबरन ही खोलती है
छिपती है कब किसी से
जीवन कि विडंबनाएँ

कुछ दर्द से भरी है
उदास सी खड़ी वो
रोके है दम लगा कर
आंसू कि फुलझड़ी को
छिपती है कब किसी से
मन में भरी व्यथाएँ

कुछ बाट जोहती सी
कुछ राह ताकती सी
लगती है बहुत प्यारी
ये दफ़न झुर्रियों में
छिपती है कब किसी से
बुजुर्गों की ये दुआएँ 


वंदना बाजपेयी



                                                     चित्र गूगल से साभार

बुधवार, 18 जून 2014

बांधू किस मन को?

इस पार बंधन के 
होगा क्या?
क्या उस पार भला,
तय कैसे हो..
बांधू किस मन को?

सुख-सिहरन की लहरें बांधू
या विलगते दग्ध पलों को?
संदली सा सामिप्य बांधू या
विघटन के अंतिम क्षण को?

खुरचूं कि उभर आये
इक नई.. कपाल की रेख
हम-तुम छोड़ कर जी लूं
निर्लिप्त.. तुझ सी ही.. देख!!
....................................
अनेकवर्णा

मंगलवार, 17 जून 2014

दर्द के बासी जूठे बरतन धो कर,
शुबह उबाल रही छाँव भर कुकर
आस के आटे को गूंधती वो हाथें 
निहार रही, केटली में उबलती चाय! 
गोरैय्ये सी विलुप्त ख़ुशी भी चहके 
जब प्याला से लब पे पहली छलके
सिप अब भी तब जैसी हाए लहराए!
माथे से बांधे आसमान हौसले की 
कमर झुका बुहारे गर्द मद्धम मध्दम!
सर्द है सूना शबनम, फोन टिटहरी सा
झाड के बिस्तर से अनलाईक कल के
तह दे लगाता मेसेज, ईमेल, रिलेशन को!
देख सूरज के आते आते,
टेबल पे कैलेंडर से नोच फेंकता
अपने जीवन से, बीते कल, एक दिन को!
और लाद लेता पेशानी पे बल दे,
किश्तों में जुड़े एक और नए दिन को!
और कडाही में तेल किस्मत की
सपने तल रही दुलार की छलनी से!
तवे पे आंसू सी चटख रही यादें
मुसीबत मुफलिसी पल बूंदों से
दर्द के बासी जूठे बरतन धो कर,
शुबह उबाल रही छाँव भर कुकर
आस के आटे को गूंधती वो हाथें
निहार रही, केटली में उबलती चाय!
( कतरन से)

अनुराग तिवारी 
स्त्री का मायके आना 
*************************
स्त्री का मायके आना 
लिपटना होता है 
अपने बचपन के साये से 
जिम्मेवारियों को टाँग खूंटी पर 
होता है अल्हड मौजों से घिरना 
स्त्री का मायके आना 
होता है एक पावन भाव बन जाना 
जैसे काशी की गंगा का 
अपने उद्‌गम हिमालय की ओर देख
उत्तरवाहिनी हो बहना
स्त्री का मायके आना
होता है फिर से एक नई स्त्री का बनना
कुंठाओं ,उपेक्षाओं और परंपराओं की धूल झाड़
फिर से निखर जाना
स्त्री का मायके आना
होता है मायके में
वसंत ऋतु का आना
स्त्री के लिये मायका
कहकहों में घुल
मिठास बन निकलना होता है
स्त्री का मायका सिर्फ एक घर नहीं
उसके हृदय को इन्द्रधनुष
बना देने वाला ब्रश भी होता है


वीणा वत्सल सिंह 

सोमवार, 16 जून 2014

" मृत्यु-विलाप "

साहुकार के ऋण-सी
चलती थी जो खाँस
है मौन आज पसरा हुआ
शायद रुक गई साँस

नहीं रहे बापू अब
हो गया अवसान
रात के तीसरे पहर में
बहू गई है जान

बेटी ना उठा ले
सर पर आसमान
चुपके से ठिकाने लगा रही
बहू,पीतल का सामान

बेटा बक्से से भिड़ा है
पर वह ताला भी अड़ा है
पोता रखवाली करता
दरवाजे पर जा खड़ा है

बेटी जाग गई है अब
हो गई है भोर
'हाय ! बापू मर गया'
सबको अकेला छोड़.....
आँखें मलते सब निकले
आँगन में उठा शोर....

करती फूट-फूट कर रुदन
पिता आँगन में पड़ा है
बेटी हाथ से चिपटी हुई
जिस हाथ चाँदी का कड़ा है !

बेटा बोला पत्नी से -
'पटना वाली' के आने से पहले
धर लो बापू का तकिया
फिर फोन कर दो भाई को
जो रहता तिनसुकिया

जो भी लग सकता था हाथ
सब धर लिया गया है
मृत्यु-विलाप की तैयारी
को कर लिया गया है

'रामपुर वाली' बहन आ गई
करती हुई विलाप
टूट गया पति-पत्नी का
गुपचुप होता आलाप...

निकल पड़ी पत्नी दहाड़ते
पति हुआ अचेत
आर्त्त स्वरों का कर्कश सुर
गान हुआ समवेत....

जुट गई है भीड़ अब
हो रहा वेदना-प्रलाप
बढ़ने लगी चीखों की तीव्रता
चल रहा मृत्यु-विलाप....!!

प्रशांत 

रविवार, 15 जून 2014

‘मैं ज़िस्म नहीं... मगर, अब तक सोच वही...!’
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ये कैसी सरकार ?
जहाँ पर खुलेआम 
बर्बरता से हो रहे बलात्कार, 
स्त्रियों से जबरन छीना जा रहा 
जीने का भी अधिकार ।

ये कैसा समाज ?
जहाँ पर कोख़ में ही
कन्या हत्या का चल पड़ा रिवाज़,
थाना हो या कचहरी मगर कही पर भी
नही सुनी जाती उसकी आवाज़ ।

ये कैसी दुनिया ?
जहाँ पर मनमानी के बाद
पेड़ पर लटका दी जाती लडकियां,
और फिज़ाओं में गूंजती ही रह जाती
उनकी दर्द भरी सिसकियाँ ।

ये कैसा परिवार ?
जहाँ पर हर नवरात्र में
बलिकाओं का किया जाता सत्कार,
लेकिन रात और दिन उन पर ही बेदर्दी से
किया जाता अनंत अत्याचार ।

ये कैसा ज़माना ?
जहाँ पर पहने जाने वाले कपड़ों को
माना जाता लडकी के चरित्र का पैमाना,
कसी जाती फब्तियां, कहे जाते गंदे-गंदे बोल
फिर भी पड़ता सब कुछ सहना ।

विधाता ने बनाया था
‘औरत’ और ‘आदमी’ को आधा-अधूरा
मगर एक दूसरे का पूरक
कि उनके मिलन से हो जायें संसार पूरा,
फिर ना जाने किसने
असमानता का कड़वा ज़हर घोला
देकर के मर्द को प्रथम दर्जा
औरत को बना अबला दे दिया एक कोना ।


सुश्री इंदु सिंह 


शुक्रवार, 13 जून 2014

बाईसवी सदी की स्त्रीत्वविहीन स्त्रियाँ
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कुछ बेलौस स्त्रियाँ
आधुनिक/ स्वतंत्र /नारीवादी स्त्रियाँ...
उन्मुक्त परिवेश में किंग साइज सिगरेट पर
बाईसवीं सदी की लिपस्टिक के निशान उडाती स्त्रियाँ
महँगी शराब के क्रिस्टल में रंगीन गर्भपात का कडवापन छिपाती
हँसती मुस्कुराती स्त्रीत्व की ज़िंदा लाश पर अभिमान जताती स्त्रियाँ
पुरुषत्व के विरोध में "पुरुष" जैसी हो जाती स्त्रियाँ
शादी की गुलामी का बहिष्कार जताती स्त्रियाँ
अवसाद का धार दंश शारीरिक ताप लुटाती स्त्रियाँ
उनकी साड़ी/ उनका मेकअप/उनके लहराते सुगन्धित बाल
उनके स्त्रीत्व का पर्याय हैं, प्रमाण हैं.....
सहज अभिव्यक्ति को भी व्यर्थ प्रमाण बनाती स्त्रियाँ
रूढ़ नियमो का विरोध
दौर्बल्य की घृणित आधुनिकता
आत्मसात कर पुरुषत्व की त्याज्य स्वक्षन्दता का
संकुचित औचित्यहीन परिमाप बनाती स्त्रियाँ,
खोकर ममत्व की सार्वभौमिक पहचान
होकर भौतिक जगत में मात्र परिष्कृत साधन
विरक्ति की आड़ में बहिष्कृत कर साध्य को
मनुष्यता के अर्धांग का मज़ाक बनाती स्त्रियाँ,
उपहास के केंद्र में कटाक्ष खुद को मान के
अपनी ही गरिमा की परिधि लांघती स्त्रियाँ
आर्थिक हो केवल स्वावलंब औ भोग तक हो स्वातन्त्र्य
जीवन के शर्म में छिपी आत्मघाती स्त्रियाँ
मृत्यु की आगोश में स्त्रीत्व पाती स्त्रियाँ
कहकहों के शोर में नंगी नहाती स्त्रियाँ
माहवारी के दिनों में चैन पाती स्त्रियाँ
स्वयं हो कस्तूरी हिरन सुगंध तलाशती स्त्रियाँ
मुक्ति की तलाश में मृत्यु गाती स्त्रियाँ
ये स्त्रीत्व बोध ही सुकून है इन स्त्रियों का
स्त्रीत्व को रौंद कर स्त्रीत्व मांगती स्त्रियाँ

विडम्बना परिवेश निर्मित दिग्भ्रमित और कुत्सित
भटक चुके मार्ग पर लक्ष्य पाती स्त्रियाँ
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ये स्त्रियाँ आधुनिकता के स्याद दर्शन का परिणाम हैं।

अश्वनी आदम 

गुरुवार, 12 जून 2014

. . . . आँचल. . . . 

आँचल मेँ समेटे लिऐ फिरती हूँ
खारा समुन्दर
साडी की सलवटोँ मेँ बाँधती हूँ जमाने का दर्द
और करती हूँ प्रतिदिन
अनवरत कोशिश जोडे रखने की सारे धागोँ के ताने बाने को 
ताकि रख सकूँ
घर को
एक वट वृक्ष की तरह सहेज कर

डॉक्टर सोनी पांडे 

बुधवार, 11 जून 2014

******* गोदना ******

हर पाँच साल मे गोदता वह –गोदना,
चार महीनों तक । 
कोई गुदवाता अपने दाएँ हाथ पर,
अपनी जाति /मज़हब छुपाने को । 
कोई गुदवाता अपने बाँय हाथ पर,
अपनी जाति /मज़हब बताने को ।
अबकी,
एक और गोदना है उसके पास,
मुंह पर गुदवाने को,
जो छुपा लेगा,
शैतानीयत / वहशीपन / शातिरता ।
सुना है,
कई इंसानी भेड़िये,
कतार में लगे हैं,
इसे गुदवाने को ........... ।

गोदने वाला ख़ुद गुदा पड़ा है,
सर से लेकर पाँव तक ।
पर मेरे लिए,
इंसानियत का कोइ गोदना नही उसके पास ।

मैंने भी कभी,
गुदवाया था किसी की याद मे,
उसके नामाक्षर ।
अब इसे मिटाने जा रहा हूँ ......!


हिमांशु निर्भय 

मंगलवार, 10 जून 2014

तुम ही थे ..............................................................


बादल बूँदें धरती अम्बर,सब कुछ था पर  तुम न थे 
तुम सा ही दिखता था सबकुछ,तुम सा था पर तुम न थे 

धवल चांदनी में भी धुन थी, तेरी ही रुनझुन गुनगुन थी
बिछी  हर सिंगार की चादर,तुम सी थी पर  तुम न थे 

थी आजान या शहनाई,या बहती थी किसलय पुरवाई 
देवालय से आती ध्वनियाँ,तुम सी थी पर  तुम न थे 

ईद का मिलन,होली के रंग,या आतिशबाजी दिवाली की
कितने पावन दिवस गए सब ,तुम से थे पर तुम न थे  

हर एक दिन एक साल रहा, पतझर भी मधुमास रहा 
लगता था बसंत का मौसम, तुम जैसा पर तुम न थे 

मुक्त छंद थे,कवितायेँ थी,गीतों की भी मालाएं थी 
सपनो से रची -पगी कहानी,तुम सी थी पर तुम न थे 

पर अधजली चिट्ठियों के टुकड़े,और मुट्ठी से फिलसी रेत 
आँखों से जो नमक बह गया,तुम सा था और तुम ही थे 

संगीता पांडे 

सोमवार, 9 जून 2014

"नए -नए बूढ़े "

वे उन सबसे खफा हो जाते हैं
जो उनके सफ़ेद बालो की याद दिलाते हैं
गालो पर पड़ी झुर्रिया दिखाते हैं

नए नए बूढ़े
अब अपनी मोर्निंग वाक का एक चक्कर और बढ़ा देते हैं
वो डरते हैं खुद के खारिज होने से
वो दिखाना चाहते हैं
अभी भी उनमे कितना दम बचा हैं..

वो जान बुझ कर रोमांटिक बाते करते हैं
आती जाती लडकियों ने कितनी बार उन्हें देखा
अपनी बीवियों को गिन गिन कर बताते हैं

नए बूढ़े
दूर रहना चाहते हैं पुराने बूढों से
वो पुराने बूढों से घबराते हैं
क्युकी वो जानते हैं
यही उनका भी कल हैं

एक उम्र में खुद को खपा कर
ये नए नए बूढ़े
अपना किस्सा खत्म मानने को तैयार नहीं हैं
उन्होंने खुद को
पूरी उम्र एक ताज़ा तरीन जवान बने देखा हैं
ज़माने को बनते और मिटते देखा हैं

अब वो जान रहे हैं
उनका भी मिटना बस कुछ सालो की बात हैं

नए बूढ़े
अपनी उखड़ती सांसो को दम साध कर रोक लेते हैं
वो जल्दी जल्दी सब कुछ सही कर लेना चाहते हैं

नकचड़ी बहु
खिसियाया हुआ बेटा और उबियाई हुई बीवी
नए नए बूढों को
पुराना बूढ़ा साबित करने की
बहुत जल्दी में हैं

नया बूढ़ा सबके सामने बहुत बढ़ा शेखीखोर हैं
पर
अकेले में
बहुत डरा हुआ हैं.........................


वीरू सोनकर 

रविवार, 8 जून 2014

''प्रेम''

नहीं कर सकती मैं
सिर्फ तुमसे प्रेम 
क्योंकि तुम्हारे मेरे 
जीवन में आने से 
बहुत पूर्व 
यह प्रेम बीज 
अंकुरित हो गए थे 
मेरे मन में 
जब मैंने जनम लिया था
तभी शरू हुआ मेरा
मेरा पहला प्रेम
अपनी माँ से
फिर पिता भाई -बहन
घर कि दीवारे लाँघते हुए
पहुँच गया स्कूल की
सहपाठियों शिक्षिकाओं तक
वो चाट वाला जो
अक्सर मेरे दोने में
एक गोलगप्पा ज्यादा रख
''खाई लो बिटिया ''कह कर
मुस्कुरा देता
या वो रिक्शेवाला जो
हर उठती नज़र को घूर कर
डरा देता
और कभी -कभी तुम्हारा
हाथ पकड़े
खो जाती हूँ प्रेम में
पेड़ो कि डालियों के
फूलो के ,भवरों के
या फिर रेंगती चीटियों के
प्रेम एक भाव है 

न की एकाधिकार 
अत :
प्रेम -प्रेम चिल्लाने से पहले 

तुम्हे
समझना पड़ेगा
प्रेमको उसके 

उसके सम्पूर्ण अर्थ में 
उसके
व्यापक परिपेक्ष में 


वंदना बाजपेयी 
                                                               "बस एक बार "





मैँ चाहती हूँ
तुम एक बार छू कर देखो
मेरी अनुभूतियोँ के सतरंगी छुवन को
एक बार घुलो आत्मा के घट मेँ
एक बार फैलो सरहदोँ को तोडकर
बाँध दो मन्नत का सूत्र तुम एक बार वट वृक्ष पर
और अपने मैँ की श्रृंखला को तोडकर
बस एक बार प्रेम करो
तुमभी मेरी तरह
अपने पौरुष के दंभ को छोडकर

सोनी पाण्डेय  

गुरुवार, 5 जून 2014

" स्वर "

एक घर 
रात्रि का दूसरा पहर
आ रहे है
दो स्वर
दोनों तीखे तीक्ष्ण
तीव्र ,पंचम
एक पतला एक भारी
चूड़ियों कि अजीब सी
खन -खन -खन
चट -चट ,पट -पट
धम -धम
चीईईईईईईईईई
सूटकेस खीचने का स्वर
घरॠरररररर…
गाड़ी की तेज
रफ़्तार का स्वर
इन सब के बीच
कही दब के
रह गए
दो कमजोर -मुलायम
मासूम ,आद्र
स्वर
"हमें पापा -मम्मी दोनों चाहिए "

कापीराइट :वंदना बाजपेई 

बहती हुयी नदी किनारे से कब कहती है तुम मेरे साथ हो