गुरुवार, 21 अगस्त 2014

                 !!!!!!!!! फेस बुक की उपयोगिता !!!!!!!!!!!!




बचपन में हम सब नें कक्षा ५ से ८ के बीच में एक निबंध जरूर लिखा होगा "विज्ञानं वरदान या अभिशाप "इसमें हम विज्ञानं के अच्छे बुरे पहलुओं को लिखने के बाद एक निष्कर्ष निकालते थे …… कि यह हमारे ऊपर   है की हम विज्ञानं का किस प्रकार प्रयोग करते हैं।  हम चाहे तो मुट्ठी भर यूरेनियम से हज़ारों मेगावॉट की बिजली बना कर कोई घरों में उजाला कर सकते हैं या परमाणु बम बना कर पूरी की पूरी सभ्यता समाप्त कर सकते हैं।
    कुछ -कुछ यही बात हमारी फेस बुक पर भी लागू होती है , हम चाहे तो इसे मात्र फालतू मैसज करने , श्लील - अश्लील फोटो अपलोड करने या  महज चैटिंग करके अपना और दूसरों का समय बर्बाद करने का अड्डा  बना सकते हैं या फिर कविता कहानी और लेख के माध्यम से अपने विचारों के विनिमय का केंद्र बना सकते हैं।  मैंने खुद अपने ऍफ़ बी के छोटे से जीवनकाल में ………  यहाँ  शुरू कर सफलता का नया अध्याय लिखने वाले अनेकों रचनाकारों को देखा है, तो इक्षा हुए क्यों न इस विषय पर एक छोटा सा शोध किया जाये।
                                 सबसे पहले तो मैं क्षमा याचना सहित इस वक्तव्य का खंडन करना चाहूंगी "कि फेस बुक पर लिख कर कोई साहित्यकार नहीं बन सकता। "जरा सोचिये कबीर दास जी नें  तो कागज़ पर भी नहीं लिखा था ………… "मसि कागद छुओ नहीं ', उनके शिष्यों नें उनके काम का संकलन किया था। तब उनका काम हमारे सामने आया अन्यथा हम कबीर दास जी के श्रेष्ठ साहित्य से वंचित ही रहते।  प्रतिभा का सामने आना जरूरी है। आज के युग में फेस बुक नव -रचनाकारों को एक मंच उपलब्ध करा रहा है।  नव प्रतिभाओं को पहचाना जा रहा है , और उन्हें अपना आकाश मिल रहा है।
                                                 अब तक कितने चूजे डर  कर अपने पंख  समेट  लेते थे जब उन्हें पता चलता था की साहित्य के आकाश में मठ होते हैं जो तय करते हैं कौन उठेगा ,कौन गिरेगा। किसको स्थापित  किया जायेगा किसको विस्थापित।कम से कम हर रचनाकार यह तो चाहता है कि उसकी रचना पाठकों तक पहुँचे।  रचना के लिए पाठक उतने ही जरूरी हैं जितना जीने के लिए ऑक्सीज़न।  इन मठाधीशों के चलते कितनी रचनायें घुट -घुट कर दम  तोड़ देती थी और साथ में दम  तोड़ देता था रचनाकार का स्वाभिमान ,उसका आत्मविश्वास। यह एक ऐसी हत्या है जो दिखती नहीं है।  कम से कम फेस बुक नें रचनाकारों को पाठक उपलब्ध करा कर इस हत्या को रोका है।
                अपनी बात को सिद्ध करने के लिए मैं उदाहरण के तौर पर कुछ नामों को देना चाहूँगी जिन्होंने यहाँ से शुरू कर सफलता के अध्याय लिखे हैं। ………… सबसे पहले तो मैं बात करूँगी अपनी प्रिय सखी सोनी पाण्डेय जी की.……… जो ंन केवल  गाथान्तर  जैसी  साहित्यिक पत्रिका का कुशल संपादन कर रही हैं अपितु नयी प्रतिभाओं को अपनी पत्रिका में पहचान बनाने का अवसर दे रहीं हैं. ,उन्होंने पुरुषों के वर्चस्व वाले क्षेत्र में सफलता पूर्वक कदम रखा है।  उनकी कवितायेँ कहानियाँ व् लेख अनेको पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके  है. विश्व में सर्वाधिक पढ़े जाने वाले "पहली बार "ब्लॉग में उन्हें स्थान मिला है , उन्होंने भी अपने सफर की शुरुआत फेस बुक से ही की। यहाँ उनके काम को पहचाना गया और पाठकों तक पहुचने का अवसर मिला।
                                          अंजू शर्मा , मृदुला शुक्ला के नाम से आज भला कौन अपरिचित है।  जरा घडी को पीछे ले जाते हैं क्या आज से ४ साल पहले उनमें प्रतिभा की कमी थी , और एक रात परी रानी आई और जादू की छड़ी घुमा कर कविता रचने की कला उपहार में दे गयी ………  प्रतिभा थी जो तलाश रही थी एक मंच जहाँ से उसे सुना जा सके और फेस बुक नें ही उन्हें वो स्थान उपलब्ध कराया।
                                    वीणा वत्सल जी घर गृहस्थी में ऐसी उलझी की कब कलम की धार कुंद  हो गयी पता ही नहीं चला।  एक अरसे बाद जब कलम उठाई तो भय सा हुआ "क्या मेरा लेखन अब स्वीकृत होगा ?" तब ऍफ़ बी ने कहा "तुम मुझे कलम दो मैं तुम्हें मुकाम दूँगा " और आज वो हंस जैसी प्रतिष्ठित साहित्य पत्रिकाओं में दस्तक दे चुकी हैं।
                   अब मुझ नाचीज की बात करू तो.……कक्षा ४ में अपनी पहली कविता लिखी थी। उसके बाद जब जब मन में विचारों की लहरें हिलोरे मारती , शब्दों की पतवार ले कर वाक्यों की नाव मन आँगन में तैरने लगती तब खुद ब खुद कलम डायरी पर , पुराने अख़बार पर , टेलीफ़ोन डायरेक्टरी पर चलने लगती।जब यह काम घरवालों की नजर में आया तो उन्होंने लिखने के लिए प्रेरित किया।  मन में एक डर था, क्या मेरा लेखन इस लायक है की कोई पढ़े , और किसी को पढ़ने के लिए भेजू  तो कहाँ ,किसे ?अंततः फेस बुक की शरण में आई। यहां मेरे काम को सम्मान मिला , अनेकों पत्र -पत्रिकाओं में स्थान मिला।  यह मेरे लिए गौरव की बात थी की पत्रिकाओं द्वारा खुद मुझ से रचनायें मांगी गयी। आज गाथान्तर के सह संपादन से भी जुडी हुई  हूँ. एक यात्रा शरू  हो गयी है। 
                       कुछ और नाम गिनाना चाहूँगी …… अश्विनी आदम , बाबू शांडिल्य , संजना तिवारी ,अपर्णा अनेकवर्णा ,मधु सक्सेना , संगीता सिंह , राधा जी , रजनी भारद्वाज ,शिखा गुप्ता ,इंदु सिंह , मधु सक्सेना , नीलम मादिरत्ता आदि....... सूची अनंत है, किस किस का जिक्र करू।
                                                  अंत में अपनी बात पर कायम रहते हुए मैं कहना चाहती हूँ, किसी भी साहित्य को जो पाठकों की , संपादकों की , रचनाकारों की कसौटी पर शिल्प , भाव,  संवेदनाओं व् प्रस्तुतीकरण के आधार पर खरा उतरता है चाहे वो फेस बुक में ही क्यों न लिखा गया हो उसे फसबुकिया साहित्य कह कर अपमानित नहीं करना चाहिए।   मैं अमीश त्रिपाठी की "इममॉर्टल्स ऑफ़ मेलुहा '"को उदाहरण के तौर पर पेश करना चाहती हूँ ,जिसे शुरू में कोई प्रकाशक नहीं मिल रहा था फिर उसके कुछ अंश फेस बुक में डालने के बाद कहानी के प्रति प्रकाशकों व् पाठकों की रूचि बढ़ी। .......... जैसा की सर्व विदित है इस किताब ने "बेस्ट सेलर ' के नए कीर्तिमान स्थापित किये।
                                                किसी ने सच कहा है "प्रतिभा जन्मजात होती है बस उसे लिखते -लिखते  परिमार्जित करना पड़ता है ठीक हीरे की तरह ……………… तभी दिख पाती  है उसकी असली चमक। ऐसे में बहुत जरूरी है एक ऐसा मंच जहाँ नव रचनाकार लिखे ,, निखरे और सीधे उसकी रचनायें पाठकों तक पहुँचे। , उसके काम को पहचाना जाये, किसी गुट  बंदी का शिकार हुए बिना, मठाधीशों के आगे सर झुकाएं बिना। फेस बुक यह काम बखूबी से कर रहा है।


       मैं गुम  सी हो रही थी अपने विचारों की भीड़ में 
      तुम मसीहा बन के आये रास्ता दिखला दिया 


             " शुक्रिया फेस बुक "
  


    वंदना बाजपेयी  
   

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

   तीसरी बेटी का हलफनामा
                           
                  



1

सुनिए बाबूजी
मैं धरती -आकाश
अन्न-जल
अग्नि-हवा को
हाजिर-नाजिर मानकर
यह स्वीकारती हूँ कि
मै आपके लिए हमेशा
अछूत अनगढ़ पहेली ही रही
और मै लडती रही हूँ आज तक

खुद से
ये बताने के लिए कि
मैं भी आपकी बेटी हूँ



सुनिऐ बाबूजी
मैँ हर बार आपकी चुनौतियाँ
स्वीकारती रही
और करती रही अकथ श्रम
आपने सिमेँट . बालू रख लिया
अपनी अन्य संतानोँ के लिऐ
मैँने ईँट . गारे से ही
बना डाला सीढी
और पयादान दर पायदान चढती रही
आप व्यग्य से मुस्कराकर कर निकलते रहे
आपने बनाया था अन्य के लिऐ
महल
और छोड दिया मेरे लिऐ
बूढे बरगद का कोटर
मैने वहीँ उगाया
रजनीगंधा
जिसकी महक आज भी घुली है
आपके महल की आत्मा मेँ
मैँ गढती रही राजा के लोहार के बेटे की तरह धारदार तलवारेँ
और आप व्यग्य से मुस्करा कर निकलते रहे
फिरभी लोहार पुत्र की तरह मैँने कभी नहीँ सोचा कि
उतार लूँ अपनी तेज धारदार तलवार से आपकी गरदन
काश आप देखपाते उन्हेँ
जो अपनी भोथरी छूरी से काटते रहे आपकी नाक
और मैँ जंगल दर जगल भटकती रही
खोजती रही संजीवनी
जिसकी मारकता से आज भी जिँदा है आपकी नाक
आप लाते रहे सबके लिऐ
ढेर सारे खिलौने
दिखाते रहे दिवास्वप्न
कि . उनका भाग्य आपकी मुट्ठी मेँ है
और मैँ माँ की पुरानी साडियोँ को पहन दो टूक कहती रही
मेरा भाग्य मेरे कर्म मेँ है
काश .
आप देख पाते मेरे होने का अर्थ
और सुन पाते तीसरी बेटी का दर्द ।




मैँ जानती हूँ
वो रात अमावस थी
अम्मा के लिए ,
आपके लिए प्रलय की थी
जब मेँ आषाण मेँ
श्याम रंग मेँ रंगी
बादलोँ की ओट से
गिरी आपके आँगन मेँ ।

माँ धसी थी
दस हाथ नीचे धरती मेँ
बेटी को जन कर
बरसे थे धार धार
उमड घुमड आषाण मेँ
सावन के मेघ
अम्मा की आँखोँ से
कहा था सबने
एक तो तीसरी बेटी
वो भी अंधकार सी
और मान लिया आपने
उस दिन से ही
मुझे घर का अंधियारा
मनाते रहे रात दिन
तीसरी बेटी का शोक।




देखा है मैँने आपको
उगते हुऐ पूरब से
फैलते हुऐ आकाश तक
अपराजेय योद्धा की तरह
विजयी सर्वत्र
किन्तु .
यह भी कटु सत्य है
सूरज के घर मेँ भी
होता है दक्खिन का कोना
जहाँ नहीँ पहुँती सभ्यता की रोशनी
विकास का भोर होता है केवल
दरवाजे पर
सदर फाटक पर बैठता
है आज भी पुरुष का अहं
और दक्खिन के कोन मेँ
बनायी जाती है
छोटी सी खिरकी
यहीँ से निकलती है
सभ्यता के चौपाल पर
सूरज की बेटी।

यहाँ पाप है बेटी का बिहान
यहाँ महापाप है बेटी का प्रेम
यहाँ क्षय है संस्कृति का
बेटी का होना
इस लिऐ आज भी मिलता है
दक्खिन का कोना ।




सुनिऐ बाबूजी !
मेरे अन्दर जो दहकता हुआ
बहता है
गर्म लावा
वो मेरी उपेक्षा का दंश
और बेटियोँ की प्रतिभा का
दम घोँटू सन्नाटा है
जहाँ जलता है भभकर
सभ्यता का उत्कर्ष ।

माँ कहती थी
बेटियाँ गंगा की बाढ हैँ
समय रहते ही बांध दो
ब्याह के बन्धन मेँ
और मैँ सोचती रही
क्या विवाह ही
औरत का जीवन है?
जहाँ नून . तेल
नाते . परते
के गुणा गणित मेँ खो बैठती
है जीवन
भुला देती है अपने सपने
और गाय की तरह खूँटे से बंधी
परम्पराओँ के नाम पर सहती है
अनमेल विवाह
अकथ पीडा
फिरभी माँ गाती थी
भिनसारे
आँगन बुहारते हुऐ
जाहिँ घर कन्या कुमारी नीँद कैसे आयी 



मेरे पास रास्ते नहीँ थे
चौखट के बाहर
परम्पराओँ के पहरे थे
बेटी और बेटा मेँ
गहरा अन्तराल था
बेटे के लिऐ सदर फाटक
मंहगे स्कूल और प्रतिष्ठान थे
बेटी के लिऐ दक्खिन का कोना और दहेज का रोना था।

क्योँ बाबूजी ?
क्या मैँ नहीँ करसकती थी
डाक्ट्रेट की पढाई ?
क्या मैँ नहीँ बन सकती थी
प्रसाशनिक अधिकारी ?
एक बार कहते मुझसे अपनी अभिलाषा
और तलाशते अपने मैँ का पैमाना
मैँ तब भी खरी थी
आज भी खरी हूँ
ध्यान से देखिए
मेरे एक एक शब्द मेँ
आपके श्रम का श्वेद
बहता है अविरल
और तीसरी बेटी करती है
रात -दिन अकथ श्रम
भरती है जतन से आपके 'मैँ'
की तिजोरी ।
ये तीसरी बेटी ही
आप मानेँगे एक दिन
आपकी बेटा न बेटी
वो लायक सन्तान है
जो पकडे रही नीव को
गाठेँ रही आँचल के कोर मेँ
आपके मर्यादाओँ की गठरी।
सोनी






                                                            (चित्र गूगल से साभार )