शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

 मेडको लेकर ..मैडना बने!...(लेख)

लेखिका-डॉ.अरुणा कपूर.                                                                              

...अच्छा लगता है जब अपने काम में कोई हाथ बंटाता है!...इससे काम करने से होने वाली थकावट में भी कमी आ जाती है!...अपने साथ कोई और भी उसी काम को कर रहा है...यह सोच भी मन को तसल्ली देती है!..लेकिन यह कोईहोता कौन है?...यह कोई भी हो सकता है!...आप जिसे कामवाली याने कि जिसेमेडकहते है, वह भी हो सकती है!

...आज के आधुनिक समय में परिवार सीमित होते जा रहे है!...वह समय इतिहास जमा हो गया है जब घर एक भरापूरा परिवार हुआ करता था...दादा, दादी, बेटे,बेटियां,बहुएं, पोते,पोतियां...और आने-जाने वाले मेहमानों से मानो घर एक छोटेसे मेले का स्वरूप धारण कर लेता था!....छोटे बच्चों को ले कर कोई समस्या ही खड़ी नहीं होती थी!..कभी किसी की गोद में बैठ कर खाना खाता था...तो किसी की गोद में चढ कर खेलता रहता था..नींद आने पर कोई भी उस छोटे से बच्चे को नरम बिस्तर पर या पलने में सुला देता था...और ध्यान रखा जाता था कि बच्चे की नींद में खलल न पड़ें!...

...परिवार की महिलाएं मिलजुल कर काम करती थी.. 

खाना बनाना हो ...या कपडे धोने हो..या झाडू-पौछें करने हो..मिलजुल कर काम करने की एक परिपाटी थी...जो समझ लीजिए कि परिवार को जोड़ कर रखने की एक मजबूत कड़ी थी!!...ऐसे में किसी बच्चे की माँ को यह सोचना ही नहीं पड़ता था कि ..मैं रसोई में काम करूंगी, तो मेरे बच्चे को कौन संभालेगा!

...कामकाजी महिलाएं आज से चार दशक पहले के समय में भी हुआ करती थी!..डॉक्टर, इंजीनियर, टीचर और अन्य कामों से जुडी हुई महिलाएं तब भी घर से बाहर अपना काम करने जाया करती थी..उनके छोटे बच्चों की देखभाल घर पर रहने वाले परिवार के सदस्य सहर्ष किया करते थे...मुख्यत: दादा, दादी ही इसे अपनी जिम्मेदारी समझते थे!...छोटे बच्चों को नहलाना, खिलाना, सुलाना, घुमाना..बगैरा काम यही करते थे!...और घर के अन्य काम घर में मौजूद अन्य महिलाएं सहर्ष किया करती थी!

...अब टूट रहे है परिवार..

...अब समाज में बदलाव आ गया है!...परिवार टूटते जा रहे है!...पहले वाली चहल-पहल अब ढूंढने से भी नहीं मिलती!..बस शादी-व्याह या अन्य शुभ प्रसंगों पर ही रिश्तेदार एकत्रित होते है!...वह भी जितना हो सके..कम से कम समय के लिए!...और फिर वही सूनापन अपनी जगह पर वापस आ जाता है!

...परिवार में रह जाते है...पति, पत्नी और एक या दो बच्चें!...यह आज के आधुनिक शहर या महानगरों में रहने वाले परिवार का शब्द-चित्र है!...चलिए मान लेते है कि छोटा परिवार, सुखी परिवार!.. बच्चों की लंबी लाइन का होना इतिहास जमा हो गया है...यह भी समाज और देश के लिए शुभ संकेत है!..लेकिन उन दादा-दादियों को क्यों नजर अंदाज किया जा रहा है?..उन्हें क्यों एक बोझ या भार समझा जा रहा है?...अगर आप को अपने बच्चे प्यारे है, तो क्या उन्हें अपने बच्चे प्यारे नहीं है?...पोते-पोतियों को तो वे असल से ज्यादा सूद प्यारा होता है’...समझ कर प्यार करते है!

..तो दादादादी कितने परिवारों में साथ रह रहे है?....बहुत कम परिवार ऐसे है!..ज्यादा तर बड़े-बूढ़े अलग ही रहने लगे है!...वजह कुछ भी हो सकती है!....कई परिवारों में उनके बच्चें उन्हें अपने साथ रखना नहीं चाहते!...बच्चे अपनी स्वतंत्रता को ले कर सतर्क हो गए है और अपने ढंग से अपना जीवन एन्जोए करना चाहते है!... और कई परिवारों में बुजुर्ग पति-पत्नी ईगो को ले कर परेशान है और इस वजह से वे खुद अपने बच्चों से अलग रहना चाहते है!..उन्हें भी अपना जीवन अपने ढंग से जीने की महत्वकांक्षा होती है....यह अब निजी मामला बन चुका है!..इस पर सही क्या और गलत क्या इसकी चर्चा करना निरर्थक है!

....मेडया नौकरानी को काम पर रखने की वजह!

अब छोटे बच्चे तो घर में होते ही है!....उनकी सार-संभाल भी उतनी ही जरूरी होती है!..अगर आप कामकाजी माँ है तो आपका चिंतित होना स्वाभाविक है कि अपना कामकाज भी चलता रहे और बच्चों की...या अदद एक बच्चे की देखभाल भी व्यवस्थित ढंग से हो!
..आए दिन की बढ़ती हुई कमर तोड़ महंगाई के समय में हम या कोई और, आपको यह सलाह हरगिज नहीं देंगे कि आप अपना कमाई का जरिया दर-करार करके घर बैठ जाएँ या महिलाएं अपनी शिक्षा और अन्य खूबियों को उजागर करने से वंचित रह जाएँ!...और बच्चे के भविष्य को देखते हुए भी आय के स्रोत का बड़ा होना आवश्यक है!...सिर्फ अकेले पति की कमाई पर घर सुचारु ढंग से चलता रहे...ऐसे परिवारों की संख्या कम ही है!

...तो जब महिलाएं घर से बाहर अपने कार्यस्थल के लिए जाती है तो पीछे घर और बच्चों की देखभाल के लिए मेडया नौकरानी रखने का चलन शुरू हो चुका है....यह नौकरानी आपके बच्चों की देखभाल करने के लिए रखी जाती है!..बच्चों को समय पर खाना खिलाना, उनको नहलाना, घुमाने ले जाना और इससे भी अधिक काम इन नौकरानियों के जिम्मे होता है!...बदले में इन्हें तनख्वाह और अन्य कई तरह की सुविधाएं दी जाती है!...कुछ नौकरानियां सुबह से शाम तक घर पर रहती है...रात के समय अपने घर चली जाती है और कुछ नौकरानियों को घर में ही रहने की जगह दी जाती है!
...तो मेड या नौकरानी घर-काम के लिए रखना, इस वजह से भी जरूरी हो गया है!

....मेडरखने से पहले इतने काम अवश्य करें....
१.मेडआपके पास किस जरिये से आई है..इस बात का अता-पता होना आपके लिए जरूरी है!
२. मेडको आपके पास भेजने वाली संस्था या व्यक्ति के बारे में पूरा ब्यौरा आपके पास होना चाहिए..मसलन पूरा पोस्टल अड्रेस, फोन नंबर और अन्य महत्वपूर्ण जानकारियां आप के पास होनी चाहिए...
३. जिसे आप काम पर रखा रहे है उस मेडका पहचान पत्र, दो-तीन फोटो कोपियाँ, उसके सगे-सबंधियों के नाम-पते और पोस्टल अड्रेस भी आप के पास होने चाहिए...
४. मेडकी पुलिस वेरिफिकेशन भी जरूर करवाएं...जिससे कि अगर कोई अपराधिक वारदात हो जाती है तो पुलिस आपकी तुरंत सहायता कर सकें!


...मेडको बाहरी व्यक्ति समझ कर ही उसके साथ व्यवहार करें!..आप अपने काम में कितनी भी व्यस्त क्यों ना हो...अपने कीमती सामान पर रोजाना नजर रखें......गहने और पैसो का प्रदर्शन करने की मूर्खता कभी मेडके सामने ना करें!...मेड आपके बच्चे को ले कर कहाँ जाती है...कब जाती है...कब आती है..क्या खिलाती है...इन छोटी छोटी बातों पर आप ध्यान रखेगी तो बड़ी मुसीबतों का सामना करने से बच सकती है!..मेडके बारे में यह सब जानना जरूरी इसलिए भी है..क्यों कि छोटे बच्चों के अपहरण के बहुतसे मामले सामने आ रहे है..चोरी की वारदातों के मामले भी मेडसे जुड़े हुए ही सामने आ रहे है!...ऐसे में अगर मेडका रखना बहुत जरूरी हो तभी उसे काम पर रखे...अन्यथा पति-पत्नी मिल कर ही घर का कामकाज और बच्चों की देखभाल करें! ...अच्छा ही हो कि आप के बच्चों के दादा-दादी आप के साथ, आप के घर में ही रहे...इनके रहते हुए मेडबुरे काम को आसानी से अंजाम नहीं दे सकती!


                                             (चित्र गूगल से साभार )

बुधवार, 24 सितंबर 2014

1.  स्वेटर और रिश्ते
हम बुनते हैं स्वेटर,
फंदे दर फंदे,
कतार दर कतार ,
बहुत सारे शोख रंग
बुनते हैं एक संग,
कई सारे नमूने
आकर्षक और लुभावने
कल्पनाओं को सजीव करते
तब --------
सुन्दर अद्भुत बन ही जाता
जिसका था , उसे जँच जाता
किन्तु -------
समय के साथ छोटा पड़  जाता ,
स्वेटर ही तो था 
सो उधेड़ डाला ,
फिर से बुन लेंगे
नए नमूने के संग
कुछ ही नए ऊन मिलाकर।

रिश्ते भी इसी तरह
हम जीवन में बुनते हैं ,
कभी प्यार , कभी मनुहार ,कभी तक़रार ;
एक -एक क्षण जीते हैं
रिश्तों कि शान में।
सीने से लगा कर रखते है
हर लम्हे को।
हृदय के पटल पर
परत दर परत संजोते
कभी आँखे , तो कभी मन भिगोते।
हाथों से गिर टूट न जाये ,
डर - डर कर यों जीते। .
हथेलियों में भींच के रखते
फिर भी ---------
रेखाओं के खेल से विवश
छिटक कर दूर हो जाता ,
फिर भी दुनिया कि नज़रों में
रिश्ता ही कहलाता।
स्वेटर और रिश्तो में कई समानताएं ,
बस एक बड़ा सा अंतर -
स्वेटर तो बुन जाते हैं दोबारा भी ,
उधड़े हुए रिश्तो को ,
हम चाहकर भी
कभी नहीं बुन पाते।

संगीता पाण्डेय 

                      (  चित्र गूगल से साभार )

रविवार, 21 सितंबर 2014

गंगा यात्रा

लागा चुनर में दाग
उर्फ़
निचलाटकनोर

निलय उपाध्याय

बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय के संस्थापक पंडित मदनमोहन मालवीय के गुरू हिमालय की उंची पहाडियों मे निरंतर विचरण करते रहते थे। बर्फ़ में रहने के कारण उनकी चमडी हाथी की चमडी की तरह सूखी और खुरदरी हो गई थी। वे एक प्रसिद्ध हठ योगी थे। उनका अधिकांश समय गंगोत्री के ठीक उपर तपोवन में ब्यतीत होता था।
एक बार जब वे गंगनानी के पास थे, हठ योग ठान कर अपनी मुट्ठियां बन्द कर ली और तय किया कि तीन साल तक ये नही खुलेंगी। यह संकल्प इसलिए था कि तीन साल तक इस हाथ से कोई क्रिया नहीं करेंगे।
चारो ओर शोर मच गया।
अब क्या होगा। कोई ऎसा नहीं था जो उनको रोक सके। उनके चाहने वालो में से कोई खाना दे जाता तो लेटकर कुत्ते की तरह खा लेते। नदी में इसी तरह पानी पी लेते। शौच आदि में वगैर हाथ की क्रियाओ के जीना कितना कठिन है,इसका अहसास हुआ। कुछ दिन बीत गए और लगा कि यह हठ योग छोडना ही पडेगा। संकल्प कैसे छोड दे? उनके भीतर एक जंग आरम्भ हो गई। समय के साथ हालातो से इस तरह हताश और परेशान हुए कि यह जीवन निरर्थक लगने लगा ।
उन्होने आत्म हत्या कर जीवन को समाप्त करने का फ़ैसला कर लिया।
इस इलाके में गंगा का जल पिघली हुई वर्फ़ है। छूने पर हाथ में करेंट की तरह लगता है। पांच मिनट तक अगर उसमे रहा जाय तो जम जाना तय है। कोई डूबकी मार कर यहां स्नान नही करता। बिना इसकी परवाह कि उन्होने गंगा मे छलांग लगा दिया।
कई दिनों के बाद उन्होने अपने को दूर कहीं गंगा के तट पर पाया। चेतना आई तो कुछ समझ नहीं पाए। उनकी मुट्ठियां खुली हुई थी। वे समझ नहीं पाए कि यह सब किस तरह हो गया। एकाएक उन्हे याद आया कि जब वे जल में थे एक औरत आई थी उन्हे उठाकर निकाला और बाहर लिटा दिया ,उनकी मुट्ठियां खोली और प्यार से कहा कि बेटा यह हठ योग का युग नहीं है और चली गई।
       क्या वह गंगा थी?
क्या गंगा ने गंगनानी के पास यानी निचला टकनोर आते आते अपने विचार बदल दिए? क्या गंगा ने भी अपना चरित्र बदल दिया। इसे चल कर समझना पडेगा कि ऎसा क्यों हो गया।
उपलाटकनोर की सीमा झाला से ही खतम हो जाती है मगर कुछ लोग मानते है कि गंगनानी में खत्म होती है। इस विभाजन की कई वजहे है जिसे गंगनानी से ही माना जाना चाहिए। उपलाटकनोर में बलुआही मिट्टी है और निचला टकनोर यानी गंगनानी से कालॊ मिट्टी की शुरूआत हो जाती है। उपला ट्कनोर के लोग घुमन्तू होते है और जाडे के दिन में जब वर्फ़ गिरने लगती है नीचे आ जाते है जब कि निचला टकनोर के लोग सालो भर अपने घरों में रहते है। उपलाट्कनोर के पहाड पर वर्फ़ का मुकुट होता है जबकि निचला ट्कनौर के सिर पर हरियाली की चूनर होती है। उपलाटकनोर में सेव की खेती होती है जब कि निचला टकनोर आते कम होती जाती हैऔर समाप्त हो जाती है।
सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने और कई मंदिर होने के बाद भी गंगोत्री के तीर्थ यात्रियो का काफ़िला इधर कम रूकता है इसलिए लोगो का जीवन स्तर उपला ट्कनोर की तरह नही है। यहां से खेतों में गेहूं धान की भी खेती आरम्भ हो जाती है। सबसे नगदी फ़सल आलू और राजमा ही है इसलिए उपरवालो की तरह मौसम की ठंढ का भले सामना न करना पडे पर जीवन की ठंढ का सामना करना पडता है। यहां का जीवन चुनौतीपूर्ण है और संभवत: गंगा को इसीलिए समझौता पूर्ण बयान देना पडा हो या अपना चरित्र बदलना पडा हो।
चरित्र का यह बदलाव गंगनानी से दिखने लगता है।

गंगनानी बहुत छोटी सी जगह है।
जो आध्यात्मिकता के रसिक हैं उनके लिए यह  आदर्श स्थान है। ध्यान या योग की मुद्रा में जाने वाले यहां अपना पडाव जरूर डालते हैं। मन चाहे जितना ब्याकुल हो यहां आने के बाद शांत हो जाता है। यहां पराशर ऋषि का आॠम था और उन्होने यहीं परासर संघिता लिखी थी। यहां का मंदिर बहुत पुराना है। मंदिर के ठीक नीचे गरम पानी का कुंड है। इस कुंड में स्नान करना आरोग्य वर्धक होता है क्यो कि पानी उन पहाडियों से होकर आता है जिनमें पर्याप्त मात्रा में सल्फ़र है।
उत्तर काशी से निकलने और पूरा उपलाटकनौर घूम लेने के बाद अभी तक मैने ठंढ के कारण स्नान नही किया था। गंगनानी आया, गरम पानी का कुंड और कई लोगो को नहाते देखा तो सोचा नहा लूं। पीठ में लगातार खुलजी हो रही थी,क्या पता सल्फ़र के पानी में उसका इलाज छिपा हो। कपडा उतार कर सामने रखा कि नजरो के सामने रहे और नहाने के लिए गरम पानी के कुंड में उतर गया।
ठंढ के इलाके में गरम पानी का कुंड। कितनी रोचक और चकित करने वाली विविधता है हिमालय मे। पानी मे उतरते पहली बार ऎसा लगा जैसे बदन जल जाएगा किन्तु थोडी देर बाद ताप अपने संतुलित हो गया। साथ नहा रहे एक आदमी ने कहा अगर आप साबुन लगाना चाहते है तो उपर पाईप से भी गरम पानी आता है। फ़िर सारा कपडा और बैग उठा उधर जाना पडेगा,मुझे साबुन नहीं लगाना ,वहीं कुंड मे काफ़ी देर तक स्नान का आनन्द लिया।
स्नान के बाद मन हल्का हो गया। थकान भी उतर गई। बाहर निकला तो सोचा कि इस मंदिर के बारे में किसी सक्षम व्यकित से जानकारी लूं तो पता चला कि इस वक्त यहां कोई पुजारी नहीं है। सभी नीचे चले गए है और वे जनवरी के बाद आऎंगे। वहां एक किताब की दुकान थी मगर बन्द थी। बाहर निकल कर आया तो सडक के दूसरी ओर भागीरथी की कल कल के वजाय हहराती धारा थी। यहां आते आते उसका पाट चौडा हो गया था और भरी पूरी युवती सी सुन्दर लग रही थी। 
गंगनानी के बारे में पता चला कि यह बहुत छोटा कस्बा है। यहां बस पन्द्रह से बीस परिवार ही रहते है । वे या तो पुजारी है या दुकानदार जिनमे अधिकांश नीचे चले गए है। नीचे कई होटल थे मगर दो ही खुले थे। मुझे भूख लग आई थी और मैं एक होटल में समा गया। खाना खाते हुए पता चला कि यहां से पांच किलोमीटर दूर उत्तर की ओर एक खीड ताल है। लोगों का विश्वास है कि यह ताल कालिया नाग का है। मै जाना चाहता था पर पता चला कि उधर सन्नाटा होगा,इस समय लोग नहीं मिलेंगे,जंगली जानवर भी हो सकते है। एक तो यात्रा का कष्ट ठंढ और जब सन्नाटे और खतरे का पता चला तो नहीं जाने का निर्णय लेकर वहां से चल पडा।

सडक पर सन्नाटा था।
पिछले हादसे में सडक सबसे अधिक इसी इलाके में क्षतिग्रस्त हुई थी और अब भी काम बहुत जोर शोर से चल रहा था। पहाड जिस तरह सडक पर गिरे थे, लगता था जैसे आपा खो बैठे हो। मंजर कहीं कही इतना भयावह था कि आंख ही नहीं ठहरती थी। सुन्दरता और भयावहता के बीच सडक जा रही थी। कही कही काम चल रहा वहां लोग दिख जाते। सडक पर कुछ दूर यानी लगभग दो किलोमीटर चलने के बाद मेरी सांस फ़ूलने लगी। समय देखा तो तीन घंटे का समय लग गया था । एक तो पीठ पर कम से कम पांच किलो का बोझ उपर से रास्ता चढाई और उतार के बीच सन्नाटे से भरा। कई जगहों पर प्राकृतिक वातावरण तो मनोहारी था मगर चलने में अकेलापन अखरने लगा। लोगों से हुई बात चीत के दौरान पिछली बार के हादसे के जीवित चित्र सामने आने लगे। हर जगह सडक पर मिट्टी पडी थी..कहीं कहीं कीचड भी था जिससे बच के निकलना पडता था।
आखिर मैं हेलगुगाड आ गया।
यह बहुत खूब सूरत जगह है। पहाड से एक मनोहारी धारा यहां भी उतरती है और गाते हुए झरने की तरह खूब सूरत लगती है। एक छोटा और प्यारा सा पुल भी है। पहाडी राहो पर दुकाने बहुत कम होती है,यहां एक दुकान थी। एक बात पर गौर किया मैने कि जीप वालो का दुकान वालो से समझौता है कि कौन ड्रायवर किस दुकान पर रूकेगा। जाते हुए भी हम इस दुकान पर रूके थे और दुकानदार दरम्यान सिंह राणा से जान पहचान हो गई थी। वहां आने के बाद मुझे सकून मिला। बिस्कुट और चाय के साथ हमारी बात होती रही। तभी अचानक गंगोत्री की ओर से एक जीप आकर रूकी। मैं खुश हो गया, यह वही जीप थी जिससे हम आए थे।
ड्राईवर भी मुझे देखकर खुश हो गया और सवारियो से बताने लगा कि यही हैं जिनकी मै बात कर रहा था जो किताब लिखने हिमालय आए है। उसकी बात सुन कर समझ में आ गया कि पहले ही मेरे बारे में उनके बीच संवाद हो चुका है। पहाड मॆ इस तरह की छोटी छोटी बाते भी सूचना और चर्चा के केन्द्र में आ जाती है,यहां के लोग इतने संवेदन शील और जिज्ञासा से भरे है। जीप से चाय पीने उतरे लोगो के बीच उत्सुकता थी और वे मेरे बारे में कुछ और जानना चाहते थे। थोडी देर बातचीत में माहौल इस तरह सहज हो गया कि हम पारिवारिक ढंग से बाते करने लगे। ड्रायवर ने पहले के परिचय की आत्मीयता से पूछा - भई जी...मगर आप दो लोग थे..?
वे नन्दी जी थे..मुझे छोडने आए थे..छोड कर गए
अब आप अकेले जाऎंगे
हां
ड्रायबर बहुत हंसमुख व्यकित था। फ़ौज से रिटायर होने के बाद बैंक से अपनी गाडी निकाल ली थी और बहुत लोकप्रिय था। भाई जी की जगह भई जी बोलता तो उस पर थोडा जोर लगाता तो आत्मीयता भर जाती और अच्छा लगता । एक आदमी नें झोले से निकाल कर सेब दिया और मैने उसे बाद में खाने के लिए रख लिया। उनके आग्रह पर वहां मैगी खाने और चाय पीने के बाद एक सिगरेट भी पिया। दुकानदार दरम्यान सिंह राणा ने व्यंग से कहा
आप पर्यावरण की रक्षा के लिए निकले है और प्रदूषित कर रहे है
मैने कहा आप भी तो बेच रहे है दोनो हंस पडे।
जाते समय दरम्यान सिंह राणा के आग्रह पर लोगों ने जबरन मुझे यह कह कर जीप पर चढा दिया कि आगे रास्ता बहुत खराब है। आपको अकेले नहीं जाना चाहिए। पहाड इस इलाके में पेड की उस डाल की तरह है जो टूट कर अंटक गई हो। भटवारी बहुत दूर नहीं है लेकिन बीच में कहीं फ़ंस गए तो कोई आदमी नहीं मिलेगा..रहने का ठिकाना भी नही मिलेगा।
थकान थी ही और अजनवी पन का भय भी आ गया।
मुझे भी अच्छा लगा और जीप में आगे की सीट पर दो के बदले तीन बैठे। हडबडी में मेरा भीगा गमछा जो धूप में सूखने के लिए पसारा था वहीं छूट गया। जब जीप आगे बढी और नजदीक से रास्ते पर गौर किया तो पता चला कि राणा का निर्णय कितना सही था। इलाका वाकई भयावह लग रहा था। कुछ दूर जाने के बाद एक जगह ऎसा लगा आज जीवन का अंतिम दिन है।
पहाड के खिसकने से सडक पर कम से कम बीस फ़ीट उंची मिट्टी जमी थी..ड्राईबर उस पर गाडी चढाते और दूसरी ओर उतार लेते। हमारे ड्रायवर ने चढाई पर गाडी चढाया और माथा पीट लिया। आगे ठीक मोड के पास एक फ़ौजी ट्रक फ़ंसा था, वह उपर चढने के प्रयास में अंटक गया था और चढ नही पा रहा था। सडक पर उपर जाने की जगह नहीं थी और  अब हमारी जीप नीचे की ओर फ़िसलने लगी। जीप में जितने लोग थे सबकी सांसे रूक गई।
कई लोग इश्वर को गोहराने लगे।
दूसरी ओर सैकडो फ़ीट नीचे बहती गंगा...सबकी सांसे अंटक गई। मैं डरा पर आंखे बन्द कर ली...जीप खिसकती रही,,खिसकती रही आंख खुली तो जहां रूकी थी...बस एक ईट भर जगह बची थी.. यह जिन्दगी की जगह थी।

बहुत जल्द मैं भटवारी आ गया।
भटवारी में मुझे विनीता रावत का नाम बताया गया था जो वहां की ब्लाक प्रमुख थी। विनीता के घर पहुंचा तो वे नहीं थी और ताला बन्द था।अब समझ में नहीं आया कि क्या करे? अचानक मैने  जेब से मोबाईल निकाला और आन कर दिया। यह देखकर खुश हो गया कि यहां नेटवर्क था और धडा धड मैसेज आ रहे थे। उत्तर काशी से निकलते समय बात हुई थी और तब से बंद था। यात्रा के पूर्व मैंने इस अभियान को फ़ेस बुक पर डाल दिया था और तब से ्कई मित्र मुझे वाच कर रहे थे। दस बारह मित्र ऎसे भी थे जो मुझे रोज फ़ोन करते थे और हाल चाल पूछते। इसके अलावे अपना परिवार भी था,जिसे छोड कर यात्रा पर निकला था।
बाहर निकलने की यह मेरी पहली घटना नही थी। दूर रहते हुए हम पूछ कर और जान कर कि ठीक ठाक है निश्चिंत हो जाते है। अब तक मैं किसी ओर दुनिया में था..किसी और के स्वर्ग मे.. अब अपनी दुनिया में आ गया था जहां फ़ोन महज एक फ़ोन नहीं है ,जरूरत से अधिक आदत बन गई है। भूख लग गई थी। मैने सोचा कि किसी होटल में बैठकर बात कर लेते है मैसेज का जबाब दे देते है और कुछ खा लेते है फ़िर सोचेंगे कि आगे क्या करना है।
मैं होटल में गया । यहां उपलाटकनोर की तरह न पवित्रता और शांति तो नहीं थी पर खाने के लिए सब कुछ उपलब्ध था। चिकन मछली..और जो चाहे..मैने राजमा चावल तथा दो अंडे का आमलेट बनाने का आदेश दिया तभी हरिद्वार से दीपक घई का फ़ोन आ गया। उन्होने एक एक कर सारी जानकारियां मुझे दे दी जिसमे मेरे परिवार का हाल, नन्दी जी सकुशल पहुंच गए है भी शामिल था। मैने पहला फ़ोन अपने घर लगाया फ़िर केशव तिवारी और उन तमाम मित्रों को लगाया जिनके फ़ोन आते रहते थे। सबको बताया कि सकुशल भटवारी आ गया हूं।
मैं जानता थी कि मेरी यात्रा का बोझ मेरे इन मित्रो के कन्धो पर है जो फ़ेस बुक पर है। जहां इतने कंधे हो वहां भय कैसा। अपनी रूचि, अपनी प्रकृति के लोगों के साथ जीने के लिए और आपसी सूचनाओ के आदान प्रदान की यह बहुत अच्छी जगह है । यह गंभीर विमर्श का स्थान नही हो सकता और बनाना भी नही चाहिए। मगर छोटी छोटी सुचनाए मसलन कौन सी किताब छपी है, कहां  आयोजन हो रहे है ,हलका फ़ुलका समाचार और आपसी हंसॊ मजाक के साथ क्या चल रहा है. पता हो जाय, संबंधो मे सरलता बनी रहे ,अगर इतना भी हो तो कम नही है।
इस संवाद मे लगभग एक घंटे से अधिक समय निकल गया। अचानक ख्याल आया कि यहां कोई मुझे जानने वाला नही है। मैने महसूस किया कि इस तरह आने वाले दिनों में मेरे साथ अम्सर होगा..कई ऎसी जगहे मिलेंगी जहां कोई अपना न हो,कोई जानने वाला न हो। अब मुझे एक नई तकनीक विकसित करनी होगी कि किस तरह रहने की जगह ढूंढे। किस तरह वहां की सूचनाए प्राप्त करे।
बाहर निकल एक दो लोगो अनजान से बात किया और अपने अभियान के बारे बताया मगर किसी ने इसमें रूचि नहीं ली। भीतर से निराश हो गया। सडक पर दो चक्कर लगाया कि कोई ऎसा बौद्धिक सा चेहरा दिखे जिससे अपनी बात कह सकूं जो मेरी बात समझ सके,जिससे ठहरने का ठिकाना खोज सकूं।
सच कहूं ,यह जगह मुझे खंडहर सी लग रही थी, कई जगह सडक पर इतनी चौडी दरारे थी कि भय भी व्याप्त हो रहा था। गंगा खूबसूरत थी मगर उसके तटो पर दोनो ओर तबाही का मंजर पसरा था। पूरे बाजार का चक्कर लगा लौट कर उसी जगह पर आ गया। उस बाजार में मुझे कोई ऎसा आदमी पहली नजर में मेरे काम का नहीं दिखा जिससे अपनी बात कह सकूं।
अब क्या करूं?
अचानक मन में खयाल आया कि यहां स्कूल होंगे। स्कूल में शिक्षक तो होगे। अगर उनसे बात किया जाय तो वे मेरी बात जरूर समझेंगे। अब तक मेरा सहयोग सबसे अधिक शिक्षको ने ही किया है। रेखा चमोली,महेश पुनीठा,उमा रमण और नन्दी जी भी तो शिक्षक ही थे।अचानक मुझे अपनी सोच पर पर खुशी हुई और मैने खुद अपनी पीठ थपथपाई लगा जैसे रास्ता मिल गया हो।
पूछने पर पता चला कि यहां तीन सरस्वती शिशु मंदिर है,एक राजकीय विद्यालय है और एक इंटर कालेज। मै इंटर कालेज की ओर चल पडा जो भगीरथी के उस पार था।पुल पार कर थोडी उंचाई पर पहुंचा और कालेज में आ गया । बच्चे जा चुके थे पर कुछ शिक्षक थे। मैने अपने यात्रा की बात बताई तो वहां के शिक्षको ने काफ़ी रूचि ली ।वहां एक शिक्षक थे अजीत कुमार श्रीवास्तव जो लखनऊ के थे..एक शर्मा जी थे कानपुर के उन लोगों ने गर्मजोशी के साथ मेरा स्वागत किया और हम शर्मा जी के घर आए जो कैम्पस में ही था। वहां चाय पी और पुन: भागीरथी के दूसरी तरफ़ जहां बाजार था ,चल पडे।
पुल पार करने के बाद वे मुझे वहां के मुख्य मंदिर में ले गए। बाजार में एक कपडे की दुकान थी, वहां एक सज्जन सरूपी पंडित मिले। उन्हें यहां की परंपराओ का अच्छा ज्ञान था। उनसे घंटा भर बात होती रही। उन्ही लोगो के प्रयास से मुझे एक होटल में कमरा मिल गया। इतने लोगो ने पैरवी कर दी कि होटल के मालिक किराया नहीं लेना चाहते थे पर हमने जबरन आधा यानी १०० रूपया दे दिया। होटल के मालिक खेत, मवेशी बगान और होटल के आधार पर वहां के सबसे बडे आदमी थे। मगर अब नहीं समझ पा रहे है कि यह पहाड कहां जा रहा है, कहां इसका विराम है।
जिस कमरे में रूका था वह गंगा के तीर पर था । कमरे में से गंगा की आवाज सुनाई देती थी। कमरे इसके बाहर इतनी मोटी दरार बनी है कि कब यह होटल गंगा में समा जाय कहा नहीं जा सकता। सन ९१ में यहां जो भूकम्प आया था उसने इस इलाके में काफ़ी तबाही मचाई थी। उसका जख्म अभी भरा नही था कि इस साल की विभिषिका ने कमर ही तोड दी ।
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२०अक्टूबर १९९१
दो बजकर तिरपन मिनट पर भूकंप आया था जिसमे उत्तरकाशी, टिहरी, और चमोली जिले के ३०७०००लोग और १२९४ गांव प्रभावित हुए थे। इसमें ५०६६ लोग घायल हो गए थे जबकि ७६८ व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी. इसके अलावा भूकंप मे ४००० के आसपास पालतू पशुओ की मौत हुई थी और ४२०० घर क्षतिग्रस्त हो गए थे.।भू स्खलन में उत्तरकाशी और गंगोत्री के बीच सड़क भयानक रूप से क्षतिग्रस्त हुई थी। भूकंप की भयावहता रियेक्टर पैमान पर 6.1 या ८ मापी गई थी। यह आंकडा इस भटवारी का नहीं बल्कि पूरे इलाके का है,लेकिन भूकम्प का केन्द्र यही इलाका था और सबसे अधिक नुकसान इसे ही उठाना पडा था।
भूकम्प में इनके खेत खत्म हो गए। उनके मवेशी और बगीचे खत्म हो गए। यह सब कुछ इतना अचानक हुआ कि समझ नहीं पाए कि ऎसा लगा जैसे घर में चोरी हो गई है और एक साथ सब कुछ चला गया हो।
अब क्या करे?
दुख में दोस्ती किसे नहीं भाती।
जिस वक्त भूकंप आया था चारो ओर लाशे पडी थी अपनो की और अपने मवेशियो की। दिन रात साथ रहने वाली चट्टाने ही एन मौके पर दुश्मन बन गई। अब क्या करे? रोने के लिए आंख में आंसू ना बचे..अब क्या करे। आंखो में चमक सी उभरी जब सेना के जवान आ गए। सरकार आ गई और देश के कई उद्योग पति भी राहत का सामान लेकर वहां कूद गए।
देखते देखते उठा लिया कन्धो पर.
.इस तरह की गर्व करे अपनी सरकार और अपने उद्योग पतियों पर। गांव के गांव बना दिए। पत्थर की राह से जाते थे पक्की सीढी बना दी। चलिए और फ़टाक से घर, लगे ही नही कि पहाड पर हूं..देखते देखते बैंक खुल गए..खेती न सही ,कुछ और करने का लोन मिल गया। ऎसी जगह बन गई कि आपको दिख जाएगा शैशव कालीन बाजार का चरित्र।
मैने महसूस किया कि बाजार के प्रवेश का यह समय कितना खतरनाक था और कितना कलात्मक। ये बहुत मिहनत करने वाले लोग थे। इनके पास अपने खेत थे अपने मवेशी थे..बागवानी थी। ये सुखी और सम्पन्न लोग थे। होना यह चाहिए था कि सरकार उनके हुए नुकसान भरपाई करती। ऎसा उपाय करे कि उनके खेत हरे भरे हो सके? उनके मवेशी बहाल हो सके? उनकी बगान में पेडो की डाल पर फ़ल आ सके मगर यह नहीं हुआ।
रास्ता बनवा दिया गया,कुछेक घर बनवा दिए गए..बैंक खोल दिया गया। आज बैंक के लोन से सडक पर गाडियां चल रही है..ठेका और काम लेने की आपस में मारामारी है जो उत्तर काशी के अफ़सरो और नेताओ के करीब है,गाडी पर चलता है बडा आदमी है। जो पुराने अमीर थे ठगे से खडे है।
कितना समय बीता।
महज बीस साल में कितना कुछ बदल गया।

यही जगह है यहां से गढवाली संस्कृति की शुरूआत होती थी। पुराने लोग अचकन टोपी कमीज और पाजामा पहनते,स्त्रिया धोती कमीज कडा धामोला पहनती थी।यहां जन्मोहा, मडुआ, चौलाई मकई झंगोरा चींणा की खेती होती थी। बीस साल में कितना कुछ बदल गया। प्राचीनतम वाद्य ढोल नगाडे रणसिंगा तुरई बजाने वाले खत्म हो गए ।पैसारा नामक संगीत का खेल होता था जिसमे दो ढोलक वाले आमने सामने खडे होकर कुछ गाते आपस में प्रति स्पर्धा करते थे,इसके अलावे रासो नृत्य भी होता था जो पुरूष और स्त्री साथ मिलकर बडे समूह में नाचते थे खत्म हो गया और अब तो गड्गवाल की संस्कृति विलुप्त होने के कागार पर है।पुराने लोग कभी कभी ही गढवाली भाषा का इस्तेमाल करते है। हिन्दी बोली जा रही है। इतनी गौरव शाली सांस्कृतिक समृद्धि को क्या हो गया। इस संस्कृति मे भी वही ताकत थी जो हम उपलाटकनोर में देख कर और उसे स्वर्ग का दर्जा देकर आ रहे है। सोमेश्वर बाबा और बघमुंडी देवी का रैथल यही है। माता कन्दोमति,शेषनाग..सबसे अधिक और जाने कितने देवता, जाने कितनी आस्थाए..पूरा का पूरा नाग वंश का इतिहास कहां चला गया।
कहां गए सोमेश्वर बाबा।
सूर्य ने तो इस स्थान पर शिव की तपस्या की थी। उनकी तपस्या से शिव प्रसन्न हुए और कहा कि वर मांगिए। सूर्य ने कहा कि आप यहां विराजिए। शिव ने कहा कि ठीक है पर मैं तुम्हारे नाम से जाना जाउंगा और ये शिव यहां भास्करेश्वर महादेव के नाम से जाने जाते है।शिव ने ही सूर्य को इस स्थान पर नेत्र यानी ज्योति प्रदान की थी जिसके कारण दिन होता है और पूरी दुनिया में रोशनी होती है। और यहां इतना अंधेरा?
बालि ने जहां  ब्रहमा की तपस्या कर त्रिलोक विजय का वरदान प्राप्त किया था वही ब्रहमा हार गए। शंकर विष्णु और सूर्य हार गए। भागीरथ, जंगम, मतंग, मारकण्डेय, सुखदेव,परासर,बालि.परशुराम .जमदाग्नि,कपिल ,ब्यास और सहस्र बाहु जैसे ऋषि हार गए। सोमेश्वर ,नाग, पाडव ,नरसिंह, भैरव जैसे लोक देवता हार गए और सैकडो की संख्या में मातृ शक्तियां हार गई।
विल्सन जीत गया सोमेश्वर बाबा हार गए। ।
हार गए शंकराचार्य।

आंछरियो से भी हार गया था जीतू बगडवाल।
जीतू बगडवाल बगोडी गांव का एक भड था जो बहुत अच्छी बांसुरी बजाता था। उसकी बहन रैथल मे ब्याही थी। बघमुंडी स्थान के नीचे बैठ कर उसने बांसुरी बजाई तो कुण्डारा परवत की परियों ने उसे घेर लिया। जीतू ने अपने गांव के भैरव का स्मरण किया तो परियां भाग गई मगर उसके पीछे लगी रही। अगले दिन जीतू अपनी साली के यहां मल्ला नामक गांव में चला गया।उसकी साली गर्भवती थी और उसने हिरण का मांस खाने की इच्छा प्रकट की।
जीतू वहां से चल दिया।
बासुरी बजाई तो पुन: उसे परियो ने घेर लिया।
जीतू ने वादा किया कि आषाढ में रोपनी खत्म कर वहां आ जाएगा। आषाढ की रोपनी खत्म हो गई और वह अपने वादे को भूल गया। परियां उसे खोजती हुई आई। जीतू रोपनी करवा रहा था उसी दिन धरती फ़्टी और वह धरती में समा गया।
जीतू का वह सेरा आज भी सेरा मल्ली नाम से प्रसिद्ध है। विजय से अधिक पराजय के मिथक क्यो है यहां। भड राणा भी तो पराजय का ही मिथक है।

भड राणा भी हार गया
रैथल में राणा नाम का भड था जिसके पास १२०० भेड बकरिया थी। नमक
पहुंचाने बेडारे यानी चरवाही के स्थान पर गया था। पैर फ़िसलने के कारण खाई में गिर गया। उसे परियो ने बचा लिया और कहा-हमारे साथ चलो
राणा ने साथ जाने से इनकार किया तो उसे मार डाला।
उसकी पत्नी का नाम गोरसालॊ था जो उसके शव के साथ सती हो गई और गुराटी सती के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। बाजार की आंछरियो राणा को एक बार फ़िर बचाया है..साथ नही चला तो मार डालेगी। इस बार साथ जा रहा है राणा।
अब गंगा का क्या होगा?
इस क्षेत्र को भास्कर प्रयाग कहते है।
प्रयाग का उल्लेख उन क्षेत्रों के लिए होता है जहां तीन नदियां मिलती है। इस स्थान पर भी तीन नदियां मोक्ष नदी ,नवला नदी और भगीरथी नदियां आपस में मिलती है। नवला नदी के बारे में कहा जाता है कि यह शापित नदी है। नवला किसी ऋषि की पत्नी थी और उसके दुराचरण के कारण ऋषि ने उसे शाप देकर नदी बना दिया था। लोग कहते है कि शापित नदी के मिलते ही गंगा का चरित्र बदल गया। मैं शापित नदी को दोष नही दे सकता। लेकिन गंगा का चरित्र भी बदला बदला सा है।
पहले दुबली पतली थी अब जवान हो गई है, किसी शोख हसीना की तरह बलखा के चलती है। आस पास इतने पहाड गिरे है..मातम मचा है..उसे किसी की परवाह नहीं है। जवानी के दिन है उसके। जवानी हो, समृद्धि हो और सौन्दर्य हो तो अकड आ ही जाती है। मैं डर रहा था कि ये जब पहाड खा गए। जंगल खा गए। गांव के गांव खा गए। देवी देवताओ को नही छोडा। परंपराओ को नही छोडा तो नदी को कैसे छोड देगे। मैं अभी कुछ सोच ही रहा था एका एक गंगा की तेज चीख सुनाई दी-
बचाओ..?
मैं पहुचा तब तक मनेरी के टनल में समा गई थी।
मेरी आंख भर आई। थोडा मचल के चलती थी,बुरी तो नहीं थी।
 
मै मनेरी आ गया था।
मनेरी वैली परियोजना।
मनेरी में मेरे सामने थी वह जगह जहां गंगा के अनवरत प्रवाह को पहली बार बांधा गया था और गहरी खाई को झील में बदल दिया गया था। बाहर चाहरदीवारी के गेट पर एक तख्ती लगी थी जिस पर लिखा था कि प्रवेश करने से पहले अनुमति ले और कैमरा के साथ प्रवेश न करे।
समझ में आ गया कि यह मानवीय भय है,बाजार का भय।
मैने भीतर घूमने की अनुमति लेनी चाही तो सवालों की झडी लग गई। जब वाच मैन को पता चला कि मैं फ़िल्म और सीरियल लिखता हूं तो प्रभावित हुआ और मुझे इस शर्त पर भीतर जाने की अनुमति मिली कि अपना सामान और कैमरा वहीं रख दूं।
कैमरा रख दिया और मन ही मन बुदबुदाया-चित्र को आंखो में उतरने से नहीं रोक सकते।
बही पर अपना नाम पता लिखने के बाद अन्दर समा गया।
अन्दर एक बहुत बडा पुल था। पुल के नीचे जाने कितनी मशीने और न जाने क्या कुछ था।बस मेरी समझ में आया कि यहां जितना कुछ था वह गंगा के प्रवाह को रोकने के लिए था। रोकने के प्रयासों के बाद भी उससे पानी रिस रहा था और एक जगह तो झरने की तरह झर रहा था..मेरा कलेजा मुंह को आ गया। फ़िर मेरी आंख भर आई। लग रहा था जैसे गंगा सिसक रही हो,कह रही हो मुझे बचा लो।
झील के बीच पुल से लगी एक दीवार पर माप के पैमाने दर्ज थे जो बताते थे कि इस वक्त झील में कितना जल था। मैने गौर किया उसकी माप १९२० फ़ीट थी। लंबाई चौडाई और गहराई देख  मै सिहर गया कि यहां कितना पानी है। पानी में पिछले आपदा की बडी बडी लकडी कि सिल्लियां तैर रही थी। पुल के दाई ओर मुडा तो जमीन के नीचे एक लोहे की जाली लगी थी। पता चला कि इन्हीं जालियों से पानी किसी सुरंग के सहारे १५ किलोमीटर दूर उत्तर काशी के पास आता है जहां टरबाईन लगे हुए है जहां विजली बनाई जाती है और बचा हुआ जल वापस गंगा मे निकल जाता है।
सच कहूं. मुझे अच्छा नहीं लगा और मैं बाहर निकल गया।
बाहर निकल मैने झील को देखा, कुछ तस्वीरे ली। कुछ भी अच्छा नही लग रहा था। एक अजीब सी मनहूसियत वहां चारो ओर पसरी हुई थी। मुझसे वहां रहा नहीं गया। वहां से पीछे लौट बाजार पर गया तो वहां भी सन्नाटा पसरा हुआ था। कई लोगो से बात चीत की पर कुछ पूछने के लिए बचा कहां था। मन जैसे कहीं उसी टनल में समा गया था जिसमें गंगा थी।
वहां के लोग इस झील को मनेरी और उसके सौन्दर्य को नष्ट करने की साजिश बता रहे थे और अब तक जो कुछ नुकसान हुआ था उसका कारण मान रहे थे। यहां आन्दोलन हुआ था मगर लोग वह ताकत न जुटा सके लोहारी नागपाला की तरह जान पर आ जाय और इसे रोक दे। मेरी मुलाकात यशवंत सिंह पवार से हुई।
मैने पूछा कि आप सबको क्या खतरा है इस झील से।
उन्होने जैसे भावुक होते हुए कहा कि इस इलाके का एक चर्चित गांव डेढ सारी नष्ट हो चुका है ,बस नाम ही बचा है यह तो आपने सुना ही होगा।
मैने उस गांव का नाम तो नही सुना पर समझ में आ गया कि वो गांव अब नही है। यह एक गांव की बलि थी मनेरी परियोजना के नाम।
और..?
जब ये बांध का पानी खोलते है तो एक हप्ते तक पहाड से पानी रिसता रहता है।
उनकी बात मेरी समझ में नहीं आई।
उन्होने बताया कि वे एक खास मात्रा में पानी रोकते है जब कभी पानी बढ जाता है तो गेट खोल कर अधिक पानी को बाहर निकाल देते है। जब पानी कम होता है पहाड हप्तों तक रिसते रहते है।
अब बात मेरी समझ में आई। हिमालय मिट्टी और पत्थर का मिला जुला पहाड है। पानी रोकने के बाद जो पानी पहाड अपनी मिट्टी में सोखता है उसके कारण यहां भू स्खलन का खतरा बढा है और घर तथा पहाड घसकने की घटनाए यहां के लिए आम है।
कोई विरोध ?
हमने कई बार कहा कि आप पानी रोकिए पर दोनों ओर प्रोटेक्सन वाल बना दिजिए ताकि पहाड में पानी रिसे नहीं पर यहां कोई सुनने वाला नही है। हमने अपने को यहां नीयति के सहारे छोड दिया है।
अब मैं क्या करू?बहुत अशान्त है मेरा मन। गंगा टनल में है। आस पास के लोग सहमे से है। मेरे मन को कौन शान्त कर सकता है।

अब तक की यात्रा में गंगा को हंसते खेलते ,फ़ुदक फ़ुदक कर चलते देखने की मुझे आदत हो चुकी थी, एकाएक गंगा को मनेरी में बंधा देख लगा जैसे कोई बच्चा रोते रोते थक कर चुप हो गया हो मगर उसके चेहरे से नाराजगी साफ़ झलक रही हो। मैं जान बूझ कर पैदल चलता उस छोर तक गया जहां गंगा की लहराती हुई आखिरी लहर थी। जिस तरह एक लहर झील में समाकर चुप हो गई देखकर मेरा मन गहरी करूणा से भर गया 




                     (चित्र गूगल से साभार )