शनिवार, 29 जुलाई 2017

बलमा जी का स्टूडियो

                                                   बलमा जी का स्टूडियो



जिन्दगी जब रात के अन्धेरे बियावान में  स्मृतियों के तलछट में कुछ कुरेदती है ,अक्सर सुख -दुख ,राग -द्वेष की घटनाऐं घण्टा घर की घण्टी की तरह टन -टन-टन बज उठती हैं । ननिहाल का प्राकृतिक परिवेश बड़ा मनोरम था ,कल-कल बहती टौंस नदी में लड़कियों के झुण्ड के साथ नहाना ,कभी मठिया बाबा के दर्शन के लिए ऊँचे सिमेंन्टेड़ पानी की नालियों पर चढ़ कर जाना तो कभी नाना से ढ़ेर सारी पौराणिक कहानियाँ सुनना याद है ,पर आत्मा के किसी भी कोने में उस ज़मीन के प्रति लगाव महसूस नहीं करती ,कारण मामा के गाँव चार बेटियों वाली माँ की घोर उपेक्षा रही । समय के साथ हम परिपक्व हुए और नाते के सारे डोर ननिहाल से टूटते गये ,आखिर सहने की भी एक सीमा होती है ।माँ नाना के मरने तक में नहीं गयी । पर मेरा गाँव सराय मुबारक कुछ ऐसे बसा स्मृतियों में कि आत्मा आज भी वहाँ नित टहल आती है ।मेरे पुरखे सिकन्दर पुर बलिया से यहाँ धरमपुरा के उपधियों द्वारा धियनिया बसाए गये पर समय ने ऐसी करवट ली की बावन गाँव पचोतर में हरिप्रसाद तिवारी ,विन्धेश्वरी तिवारी की तूती बोलने लगी ।इसी प्रभाव में अम्मा के बाबा जो मेरे गाँव के प्राईमरी स्कूल के हेडमास्टर थे प्रभावित हो पहले हमारे कुल में अपनी बेटी ब्याही पीछे बड़ी चालाकी से आजी से बाबूजी की नज़र उतार छ:माह की अम्मा के ब्याह का कौल (वचन) ले गये ।बात आई -गयी और समय चिड़िया के पंख पर बैठा फर्र फर्र उड़ता रहा।

 दरोगाइन गंगोत्री देवी को जान कर काटो तो खून नहीं ,बभनपुरा के लठैत बाभनों में बेटी जाए ,सुन कर सलाके में , आँगन में विलाप करने लगीं ,सास का पैर धर रोतीं -

"काट कर टौंस में फेंक देना जो बेटी को वर न मिले , पर बभनपुरा न ब्याहना अम्मा जी "। 

अम्मा जब बाबूजी से लड़तींं,  रो -रो बतातींं ,कनवा  ले आकर बोर गया। कनवा यानी अम्मा के बड़े चाचा,अम्मा जीती तो सपनों में यहाँ ब्याह न होता ,कहती मेरी बेटी लन्दन जाएगी पढ़ने ,पर ये सारे ख्वाब ,ख्वाब ही रहे ।चार साल की अम्मा को छोड़ नानी स्वर्गसिधार गयीं, दरोगा जी तीनों बेटों को लेकर नौकरी पर बिहार चले गये ।अम्मा रह गयींं चचेरे भाई -बहनों संग गाँव में ।यहाँ अभाव था, संघर्ष था , उपेक्षा थी ।इधर सात साल के बाबूजी भी मातृ स्नेह से वंचित हुए ।कर्कशा भावज की मानसिक यातनाओं के बीच बारह साल के बाबूजी का ब्याह अम्मा से हो गया और सोलहवें में गवना हुआ । दुबले -पतले बाबूजी , भरी- पूरी अम्मा , पूरे कुल की बुढ़ियों में हाय -हाय मच गयी । बाबूजी की चन्द्रकाली फुआ ने ड़ोली से  बहू उतारते ही भाई को उलाहना दिया-

 "गाय संगे बछरु बियह गइलें "। 


अम्मा के गाँव शिक्षा थी ,हमारे घर सात हर की खेती , अम्मा ने पति को मन्त्र दिया -

"पढ़ोगे नहीं तो मेरे भाईयों संग बैठोगे कैसे ", जो तरे -ऊपर पतलो रख फूंक भी दी जाऊं घर में ,पढ़ना न छोड़ना तिवारी जी ।" 

और इस तरह बाबूजी हमारे कुल के पहले पोस्ट ग्रजुएट हुए । आगे परम्परा बन गयी , जिस जमींदार परिवार के लड़के गाँव के प्राथमिक पाठशाला से आगे नहीं पढ़ते थे वहाँ बाबूजी ने इतिहास रचा और रचते चले गये। 
                        परगना पचोतर ,जिला गाजीपुर का छोटा सा गाँव सराय मुबारक देश के तमाम छोटे गाँवों जैसा ही है । लहलहाती खेती , हरे -भरे बाग - बगिचे ,ताल- तलैया ,सगड़ा ,कोली , कोली में साइकिल के पुराने टायर को सिटकुन से मार -मार भगाते नंग- धड़ंग बच्चे ।इनार की जगत पर गोट्टी खेलती खबर- खबर झोंटा खजुआती लड़कियाँ । कुछ कांख में भाई -भतिजे को जांती खड़े हो तमाशा देखतीं तो कुछ डाली में अनजा ले बनिए की दुकान से तेल ,मसाले की खरीद को जातीं । औरतें सुबह शाम नियम से खेतों की ओर निकलती निबटने और ड़हर में रुक कर टोह टक्कड़ इनकी -उनकी लेते चलतीं ।मर्द किसानी से निजात पा रात को चौबे जी के बरामदे में बैठ गायकी करते , कभी फगुवा ,कभी चैता ,कभी भजन -किर्तन ।नवयुवकों का भी अपना मंगल दल था जो समय- समय पर नौटंकी खेलता ।जब बरखा नहीं होती शिव जी की पिंड़ी इनार में रस्सी से लटका रात भर किर्तन होता इस आस में कि अकबका के डूबे रहने पर शिव जी जागेंगे और इन्द्र को ले खेदिया बरखा कराएंगे । इस इलाके में शिव जी का बड़ा महात्यम है , महाहर शिव इलाके के क्षेत्र देवता । सुना है पूरे उत्तर भारत में एक मात्र पंचमुखी शिव लिंग यहीं है ।यही वह जगह है जहाँ दशरथ ने श्रवण को मारा था । अब आप समझ सकते हैं कितना महत्व है यहाँ अड़भंगी भोले का ।मेरे गाँव से कोई एक किलो मीटर की दूरी पर महारे की छोटी सी चट्टी थी उन दिनों ।कुल मिलाकर चार पाँच दुकानें रही होंगीं ।एक किराने की ,एक बिसाते की ,कोने में चाय -पकौड़ी की ,हाँ एक झोला छाप डॉक्टर की भी जो अपनी मोपेड से गाँव -गाँव घूमते ,इलाज करते थे ।उन्ही के बगल में थी कथा नायक बलमा जी का स्टूडियो ।पहली बार जब देखा था बलमा को उम्र कोई चौदह की रही होगी ।शरीर में तमाम तरह के उफान का दौर ।खुद को उम्र से ज्यादा सयाना समझने की जिद में ऐंठी मैं अम्मा का हाथ थामें दुकान के बाहर रखी चौकी पर बैठ गयी ।मरदह से जीप में बोरियों की तरह ठूस कर लाई गयी मैं बैठ कर अभी खुल कर ठीक से साँस भी नहीं ले पाई थी कि अन्दर से दाँत निपोरते ,हाथ में लोटा- गिलास लिए बलमा निकला ।उसे देख मुझे हँसी आ गयी , दूबला -पतला लच- लच बलमा लाल रंग की टी शर्ट और सटकहवा नीला जिंस पहने माथे तक लटकतीं जुल्फें, खैनी सूर्ती के कोप से झौंसी करियाई दंत पंक्तिया।गले में धारीदार ललका गमछा लपेटे आकर सामने खड़ा हो गया ।अम्मा का सोहर कर पैर छू ,गिलास रख , लोटा लिए सामने नल से पानी लेने चला गया । पानी गिलास में ढ़ार कर अम्मा को भेली पानी दिया और मेरी तरफ लोटा बढ़ा कहा -

"बहिनी तुम लोटवे से पी लो।"

भयंकर उमस में ठण्डा पानी पी कर जान में जान आई ।हाल चाल पूछने के बाद बलमा ने पूछा - "गावें कइसे जाऐंगी मलकिन ?"

अम्मा ने कहा- " पैदले ।"

गाँव अभी भी एक किलो मीटर था ,मेरी जान सूख गयी । 
बलमा ने मेरी तरफ देखा और अम्मा से कहा -"चलिए हम छोड़ देंगे।ओनिए जाना है।"


अम्मा तैयार हो गयींं ।हम उसकी फटफटिया राजदूत से जो पूरे रास्ते फटे बाँस के कर्कश भोंपू की तरह बजता रहा ,गाँव के बाहर अपने बाग तक पहुँचे ही थे कि अम्मा ने रोक दिया - 

"राहे द बाबू , अब हम चले जाएगें ।"

अम्मा ने दाँत दिखा उसे आभार व्यक्त किया ।बलमा कभी मुझको देखता ,कभी अम्मा को ,शायद कुछ कहना चाहता था पर कह नहीं पाया ।हम घर आ गये ।अम्मा ने ताला खोला ।हाथ मुँह धो कर मैंने चाय बनाया ।हमें देखते ही बगल के चाचा के यहाँ से दूध आ गया ।बड़की अम्मा आकर बैठ गयीं ,ललइ चाचा की माई भी आकर पीढ़ा  ले बैठ गयीं, अम्मा की बैठकी लग गयी । सबने चाय पी ,धीरे -धीरे लड़कियों को खबर लगी । रुना ,गीता,सीता ,सुधा आदि आ धमकीं ।शाम के खाने की चिन्ता नहीं थी । हम हमेशा की तरह मऊ से चलते वक्त पूड़ी- सब्जी लेकर चले थे । लड़कियों ने इशारा किया तो मैं अम्मा से पूछ धीरे से बाहर निकली ,काले -काले मेघ सरपट हमारे गाँव की ओर भागे चले आ रहे थे ।देखते -देखते अन्धेरा छा गया ।बस बुन्नी छूटने ही वाली थी ।मुझे देख बगल की बड़की माई ने कहा -

"बाह बेटी !अईलू त अईलू ,बरखा लेहले अईलू । जीय मोर रानी ।"

आशीष दे वह अपने जानवर खोल पलानी में बांधने लगींं । हम कुँवर बाबा के चौतरे पर बैठ गये,आज बगल में गोड़िन ने भरसांय नहीं झोंकी थी ।बरसात में लवना का अभाव रहता था ।घर की रोटी बनाए की सबका दाना भूजें।मैं सोचती रही,गीता ने टोका तो मेरी तन्द्रा टूटी - "तुमको बलमा छोड़ गया ?"

- "हाँ " कह मैं उसका मुँह ताकने लगी

- "तुमसे किसने कहा दीदी ?" मैंने पूछा,
- "पिंटुवा बता रहा था ।"

उसने मुँह लटका कर कहा ,मुझे ध्यान आया ,पिंटू कैंची साईकिल चलाते हुए गुजरा था।लड़कियाँ आज अप्रत्याशित ढ़ंग से चुप थीं ,मैं सोच में थी ,माज़रा क्या है ?
सुधा- "बेचारा गाँव तर आया था तो चाची को पानी -दाना तो पूछ लेना चाहिए था । "

वह खासी नाराज लग रही थी।
रुना और नाराज - "इ चाची के पास न तनिको व्यवहार नहीं है ।क्या सोचेगा बेचारा ।"

उसका मुँह और लटक गया।
सीता ने तो हद ही कर दी --"तुम तो बहुते सट के बैठी थी ।"

आँख नचा कर कहा।सब मुझे चील की तरह घूरे जा रही थीं ,जैसे मिनट में घोंट जाऐं।मेरा माथा घूम गया,हो गया धमाका,मैं तन के खड़ी हो गयी, कमर पर हाथ रख युद्ध की मुद्रा में , भौंह गुस्से में तान कर कहा -मतलब क्या है तुम्हारा सुधा दी ? मेरा पारा सातवें आसमान पर - "तुम लोग बहुत गन्दी हो।"

कह मैं पैर पटकते घर लौट आई ।मन अपमान से जला जा रहा था ।पहली बार चरित्र पर उंगली उठी थी ।मेरी रुलाई फूट पड़ी। हद है ,शकल से उस लुच्चे लफंगे के साथ ,छी : ,मेरा मन गुस्से से कसैला हुआ जा रहा था । गुस्सा  निकलना ही था ,अम्मा बाहर बरामदे में बैठी बेना हांक रही थी ,साथ -साथ बादल को घिरते देख मुक्त कंठ से कजरी गा रही थी 

"कैसे खेलन जाईं सावन में कजरिया ssss

बदरिया घिर आई ननदी ssss"


मैं धम से आ चौकी पर बैठ गयी - "क्या जरुरत थी आपको बलमा के साथ आने की ? "

मैं गुस्से में चिल्ला रही थी ।अम्मा ने बेना हांकना और गाना दोनों साथ में बन्द कर दिया । चेहरा खींच गया ,मेरी तरफ चिन्ता से देख पूछा - "हुआ क्या ? "

मैंने सब कह सुनाया ,अम्मा ने केवल इतना कहा - मौगड़ा है ,गलती हुई ,नहीं आना चाहिए था । "

हम खा -पी कर सो गये ।अगली सुबह उजाला छिटकते गीता मेरे सिराहने आकर खड़ी हुई ,आहट पा मैं जग गयी । अंगूठे से जमीन की मिट्टी कुरेदते हुए कहा - "चलो बाहर घूम आते हैं ।"

मेरी तरफ देख कर -"अजोर हो रहा है । "

मैं चप्पल पैर में ड़ाल चल पड़ी ,अम्मा लौट आई थी ,आकर नहा रही थी आँगन में ।हम रास्ते भर चुप रहे,आज वो मुझसे हाथ भर की दूरी पर बैठी थी ,बार -बार मेरी तरफ देखती और कुछ कहते -कहते रुक जाती ।हम लौट कर पानी छू ,हाथ धो ,दातून ले बाहर नीम के पेड़ के चौतरे पर बैठ दातून करने लगे ।सामने वाले ढ़ेला भइया गाय लगा रहे थे ,दूध छर्र sss-छर्र ssकी आवाज के साथ बाल्टी में  गिर रहा था । सीता झांडू ले घर बुहार रही थी ,बीच- बीच में कनखिया से हमें देख लेती । टोले के छोटे लड़के -लड़कियों का खेल पराते से शुरु हो गया  था  ,रात भर बरखा हुई थी ,आस-- पास गड्ढ़ों में पानी भर गया था ,बच्चे नंग धड़ंग छप्पक छप पानी में खेल रहे थे। हम दातून कर बहरी अँगना मुँह धो घर में लौटे ।अम्मा चाय बना खाना चढ़ा चुकी थींं ।लोटा से दो गिलासों में चाय ढ़ार हम छत पर चले गये ।मौसम अब भी सुहावना था ,बादल आसमान में जमें हुए थे ।मेरा प्रिय मौसम ,मैं दुवार की ओर मुँह करके बैठी चाय पीने लगी । गीता सुड़- सुड़ करती चाय पी रही थी ,मुझे उसके आवाज करके चाय पीने पर बहुत गुस्सा आता ,घूरते देख वह आवाज धीमें कर पीती रही ।गीता मुझे देख कर मुस्कीयाती और लजा जाती ।उसकी इस हरकत पर मेरी हँसी छूट गयी ,मैं अभी हँस ही रही थी कि उसने कमर के पास से सलवार में से मुड़े -तुड़े कागज निकाल मेरी हथेलियों पर रख दिया -"बेबी तुमको विद्या माई की किरिया ,केहू से कहना मत।"
मैंने भौंहों के इशारे से पूछा - "है क्या यह?
वह लजा कर लाल हो गयी ,धीरे से कहा -चिट्ठी"

मैं ने तपाक से पूछा- " किसकी ?"


मेरी हथेलियों पर उसने चिट्ठियों की गठरी रख दी और शर्मा कर कहा पढ़ लो। मारे कौतुहल के मेरे पेट में गुड़- गुड़ मच गयी ,दिमाग में सिंटी बजने लगी ,कहीं दूर हवा में ज्यों लहराया हो प्रेम में माता दुपट्टा और मैं दुवार पर नीम पर पड़े दो पलिया झूला पर बैठी हवा से बातें कर रही होऊं । मेरे हाथों में पहली बार किसी का प्रेम पत्र था ,झट खोल मैं पढ़ने बैठ गयी और ये क्या ,सब के सब खून से लिखे ?


"लिखता हूँ खत खून से स्याही न समझना
मरता हूँ तेरी याद में जिन्दा न समझना"

अगले खत में एक और शायरी....

"काली काली साड़ी पे कढ़ाई नहीं फबती
गोरी तेरी याद में जवानी नहीं कटती"

खत की भाषा पूरी सी ग्रेड सिनेमा की ,मेरा मन खराब हो गया । चौदहवीं के उम्र में प्रेम पत्र का सुकोमल आकर्षण तार- तार हो गया । लिखने वाला खासा चालाक था ,अपना नाम नहीं लिखा था ।मैं अन्दर ही अन्दर भून कर राख हुए जा रही थी ,पर कुछ राज उगलवाने थे अभी इस लिए चुप रही । मैंने धैर्य पूर्वक पूछा - "किसने लिखी ?"


उसने घुटनों में सिर छिपा लिया ,मैंने कुहनी से ठेल कर दुबारा पूछा - "बताओ भी किसने लिखा?"

 और यह क्या ,थोड़ी देर में ही उसका लाज छू मंतर ,ही ही ही हँसते हुए मेरे गले में हाथ डाल कर कान में कहा -"बलमा !"

सुनते मुझे लगा कि  मैं बेहोश हो जाऊंगी ,मारे सदमें के,यह दूध सी उजली, चिकनी लड़की और वह लोफर मजनु बलमा ,मैं मुँह बिचकाए उसका मुँह ताकती रही कि नीचे से अम्मा की आवाज आई-

 "अरे तनी खेत में से नेनुवा लेते आती बेबी ! बाबूजी आने वाले हैं ।"

मैं बेमन से डाली ले गीता दी संग दुवार के खेत में पहुँची ,गीता खुल चुकी थी ,चहक -चहक बता रही थी कि पिछले मेले में बलमा ने गुलाब की महक वाला सेण्ट दिया था ,एक कलम स्कूल के डहर में मिला तो ,एक दिल छपा रुमाल कुसुम की शादी में जब फोटे खींचने आया था ,तब दिया ।वह रेलती रही और मैं खोज -खोज भर ड़ाली नेनुआ तोड़ती रही ,हल्की फुहार पड़ने लगी तो हम सिर ओढ़नी से ढ़क घर की तरफ भागे ।वह अपने घर में घुस गयी मैं भागी अपने घर में । दस बजे बाबूजी भी आ गये । अम्मा बता रही थी - "रात भर गोड़ तोर कर बरखा हुई है तिवारी जी ,आना सुफल हुआ ।कुल खेत रोपा जाएगा ।"

देखते- देखते रोपनी करने वाली मजूरनों से दुवार भर गया ।जवान लड़कियाँ और औरतें ,अम्मा ने रोपनी का अंगुवा निकाल कर सबको बताशे बाटेंं ,सब की सब पानी में भींगी  ,शरीर पर कपड़े चिपके ,माथे पर से सिन्दूर की रेख बह कर पूरे चेहरे को रंगे हुए, जोगिया रंग में रंगाया चेहरा ,हँसती ,गाती ,माती पवन सी ये श्रमशील औरतें मेरे दुवार को रजगज किये उमंग से भरी मौसमी गीत कोरस में गा रही थीं ।अम्मा की विशेष मांग और चाय के आश्वासन पर झुल्लनबो ने कहरवा गाया - 


  "   के मोर जइयें ssरे उरबी पुरबीया रे sssजान
       आये के मोर जनिये कलकतवा रे sssजान
       देवर मोर जइयें उरबी पुरबीया रे ssजान
       सइया मोर जइयें कलकतवा रे sssजान
       केsइ रे लेअइsहें लाल चोटी बनवा रे ssजान
        केइ रे लेअइsहें फुलगेनवा रेss जान
        देवर मोर लेअइsहें लाल चोटी बनवा रेss जान
         सइया मोर लेअइssहें फुलगेनवा रे ssजान
         केइ के लगइsहें लाल चोटी बनवा रेss जान
         केइ रे लगइsहें फुलगेनवा रेss जान
          देवर लगइsहें लाल चोटी बनवा रेेेsss जान
           हम पिया खेलिब फुलगेनवा रेेेsss जान "

इन गीतों को सुन मन उल्लास से भर गया ,सबने चाय पी भरुके में ,मैंने डायरी में दर्ज कर लिया उन गीतों को ,नहीं जानती थी उन दिनों मैं अपने अंचल की सबसे अनमोल थाती सहेज रही हूँ । औरतों का आधा समूह बाबूजी के साथ कुटी वाले खेत की ओर चला गया ,आधा अम्मा के साथ दुवार पर ।घर खाली ,सुधा और रुमा भींजते मेरे घर में घुसीं ,मैं खुश हो गयी ,अकेले बोर हो रही थी । दसवीं पास कर लिया था ।ग्यारहवीं की किताबें लेकर आयी थी पर मन था कि गीता और बलमा जी के लव स्टोरी में अटका था ।रुमा ,सीता ,गीता ,सुधा सब पिरथी पुर साइकिल से पढ़ने जाती थीं ,जून का महींना होने से स्कूल सबके बन्द चल रहे थे । वह आयीं तो राहत मिली ,चलो कुछ गीत इनसे पूछ लिख लेतीं हूँ सोच डायरी और पेन ले बैठ गयी ।काले रंग की सुनहरे किनारी वाली मोटी डायरी देख दोनों मुँह बाए ,आँख फाड़े मुझे आश्चर्य से देखने लगी -

"इ तो बहुत महंगा होगा बेबी ! "

रुमा ने कहा तो मैं हँस पड़ी -

"अरे नहीं दीदी!  किताबों के प्रकाशक  हर साल बाबूजी को स्कूल में बहुत सारी डायरी दे जाते हैं । उन्हीं में से कभी कभार हमें भी मिल जाती है। " 

मैंने दोनों से वादा किया ,अगली बार आप दोनो के लिए डायरी ले कर आऊंगी । लड़कियाँ खुश हो गयीं ,मैंने गाना पूछा तो दोनों अपनी गाने की कॉपी देने की बात कह टाल गयीं ।मैं समझ गयी आने का उद्देश्य कुछ और है। 
                        अभी वह खुलतीं कि रुमा का भतीजा आकर बुला ले गया कि माई बुला रही है।रह गयी सुधा,सुधा का सांवला चेहरा लम्बी मुस्कान से खिल उठा था - 

"क्या बात है दिदिया "?

मैंने पूछा तो गीता की मुद्रा में वह भी लजा गयी ।सर घुटनों में ,मेरा माथा ठनका ,आगे उसकी कमर से भी सलवार में गाठें चिट्ठियों की पोटली ,वही खून से रक्तरंजित प्रेम पत्र । मरने जीने रात भर करवटें बदलने की बेचैनी । मैंने मुँह बिचका लिया ,वह रो रही थी ।

"हम उससे बहुत पियार करतें हैं बेबी ।जब कल तुम उसके साथ आई ,मेरा कलेजा जल गया ।" 

झर -झर आँसू ।इन लड़कियों के लिए गले में कैमरा टांगे ,जुल्फें लहराते, पान चबाते चलने वाला बलमा हीरो था ,मेरी नज़र में शहर का सड़क छाप मज़नू ।मेरी हँसी ऐसी छूटी की लोट पोट ।मन में आया कह दूं ,उस बन्दर के साथ आप सोच भी कैसे सकतीं हैं ,पर बुद्धि ने काम किया ,सम्हल गयी - 

"अरे नहीं दीदी ,वह तो मुझे बहिनी कह रहा था । "

वह गहरी साँस छोड़ राहत भरी मुस्कान संग टपाक से बोली -

"सही में?"

मैंने उसी अदा से उत्तर दिया -"सही में।"

                                                                   (2)


दोपहर होने को आया था ,बादल थे कि गाँव में आकर जम गये थे ,चारों तरफ बिछलहर ,कीरा -बिच्छी भी प्रकट होने लगे ।अम्मा छाता ताने भनभनाती आ रही थी -

"कबसे कह रही हूँ पैखाना बनवा दीजिए, सुनते ही नहीं ।लड़कियाँ इस मौसम में ना जाने कहाँ जाऐंगी । "

ठण्डी हवा का झोंका खिड़की से आ रहा था ,मैं खटिया खींच कर खिड़की के पास आकर बैठ गयी । बाहर छोटे -छोटे गड्ढों में भरे पानी में गौरैयों का झुण्ड डूबक -डूबक कर नहा रहा था ।सामने वाले ढ़ेला भइया का पाँच साल का बेटा चुन्नू नंग धड़ंग पानी में कूद -कूद खेल रहा था ,कमर में काले धागे की करधन में लाल -काली मोतियों के साथ छोटा सा पीतल का घुंघरु रुनझून बजता और उसकी झुन्नी दाऐं बाऐं साथ में नाचती ।इधर चिड़ियों की चहक उधर चुन्नू का पानी कूद नाच चल ही रहा था कि भीतर से चिल्लाती आजी बाहर निकलीं और चटाक -चटाक चार थपरा मार बाँह घसीटते  बहू को गरियाते उसे अन्दर लेकर चली गयीं । पानी तेज हो गया और बौछार अन्दर आने लगा तो अम्मा बाबूजी का गुस्सा मुझ पर उतारने लगीं  ,खटिया समेत मुझे खींच भड़ाक -भड़ाक खिड़की लगा दिया । मैं चुप लगाए बैठी रही ,इसी में कुशल था । अम्मा बरामदे में बोरशी में अहरा सुलगा खाने की तैयारी में लग गयी ।बाहर मुसलाधार बारिश हो रही थी ,रह -रह कर बिजली कड़कती और भड़ाम से कहीं जा कर गिरती ,अन्धेरा छा गया ।मैंने लालटेन जलाकर बाहर बरामदे के ताखे पर रख दिया ।आँगन के ताखे पर ढिबरी जला आई । अम्मा बाहर कोली (पतली गली)की तरफ बार- बार झांक आती ,बाबूजी की चिन्ता साफ झलक रही थी । मैनें आंटा गूंथ कर रख दिया ।अम्मा आग पर आलू ,टमाटर भूनने लगी । चूल्हा खुले आँगन में होने से आज भौरी ,चोखा अहरे पर लग रहा था । चिन्ता मुझे भी हो रही थी ,घड़ी में देखा ,अभी शाम के चार ही बजे थे और सबके खपरैल ,आँगन से धूंआ उठने लगा था ।बरसात में जीव जन्तु के डर से लोग सकेरे बना खा कर पटा जाते थे ।अब मैं भी रह- रह कर कोली की ओर झांक आती ,अचानक बाबूजी आते दिखे तो माँ ,बेटी ने चैन की साँस ली ।बाबूजी भींग कर लथपथ ,कपड़ा उतार , हाथ मुँह धो आकर बरामदे में खटिया पर रेडियो ले बैठ गये ,अम्मा ने चाय बना कर दिया ,मैं कमरे में लौट आई ,रेडियो पर बी .बी .सी .से समाचार लगा बाबूजी न्यूज सुनने लगे ।रेडियो घरघराता तो चारों तरफ घूमा कर सिगनल मिलाने का प्रयास करते और अन्त में हार कर बन्द कर रख दिया । दोनों बोरशी में मिलकर भौरी सेंकने लगे । कमरे में लैम्प जला मैं किताब ले पढ़ने बैठ गयी । रुमा अपने गीत की कॉपी लिए आयी ।हम गीत लिखने लगे ,अचानक कॉपी से सरक कर मुड़ा हुआ  कागज मेरे सामने गिरा ।रुमा मेरी तरफ पीठ किये चम्पक पढ़ने में मगन थी । मैं कागज खोल कर पढ़ने लगी ,हद है महराज ,सामने छलिया बलमा का आज तीसरा रक्त रंजित प्रेम -पत्र । अम्मा ने आवाज दी तो मैं झट कागज को कॉपी में छिपा चारपाई से उठ खड़ी हो गयी ,एक दम सावधान की मुद्रा में। अम्मा हाथ में टार्च लिए खड़ी थी -

"उसने पूछा -बाहर जाओगी  ? "

मैंने ना में गर्दन नचाया ।वह चली गयी तो मैंने राहत की साँस ली । कागज निकाल रुमा को दिखा कर पूछा -"ये क्या है?"

और बदले में वही पुराना गीता और रुना का उत्तर ।सुनकर मेरा दिमाग चकराने लगा । मन में उथल- पुथल मच गयी ,बड़ा धूर्त है बलमा ,एक साथ मेरे टोले की तीन लड़कियों को प्रेम जाल में फांसे है । रुमा उसके उपहारों के किस्से सुनाती रही ,वही पेन ,सेण्ट ,रुमाल इधर भी उधर भी ।रुमा चली गयी ,सुबह से तीन प्रेम -पत्र और एक प्रेमी की कहानी सुन दिमाग का दही हुआ जा रहा  था ।कभी मन होता सबके घर जाकर कह दूं और बलमा की जम कर धुनाई करवादूँ, फिर खयाल आता कि लड़कियों की तोड़ाई पहले होगी ,बदनामी अलग से , मैं सोचती रही ।अम्मा ने सोचा मैं पढ़ रही हूँ ,खाना लाकर खटिया पर रख दिया ।रुमा सुनियोजित ढंग से आयी थी ,मुझे विचार मग्न देख न जाने कब उठ कर चली गयी मुझे ध्यान ही नहीं रहा । मेरी आँखें वैचारिक तनाव से भारी हो चुकी थीं ,भूख ना जाने कहाँ बिला गयी ,मुझे भूख नहीं अम्मा ! कह मैं आँख बन्द कर सोने की कोशिश करती रही । अम्मा के निहोरा पर बड़ी मुश्किल से एक भौरी खा पायी उस रात ।

                     बरसात की रात ,बाहर नीम पर झिंगुरों की झनझनाहट और जीव जन्तु की तरह -तरह की आवाजें माहौल को डरवना बनाए हुई थीं ।रात आठ बजे बिजली आई तो राहत मिली ,घड़ी में आठ बज रहे थे ।एक ही कमरे में पंखा होने से हम तीनों की खटिया साथ लगी ,किनारे -किनारे अम्मा -बाबूजी ,बीच में मैं । दिन भर के थके दोनों बिस्तर पर जाते सो गये । मेरी बेचैनी का आलम यह था कि मिले बलमा तो मुँह कूच दूँ ।बच गयी थी सीता ,नहीं sssनहीं ,वह तो गाय है । सामने दीवार पर टंगे कैलेण्डर में कृष्ण, राधा संग रास रचा रहे थे ,बीच में राधा -कृष्ण किनारे -किनारे गोपी- कृष्ण। सवाल जो उछल -कूद दिमाग में कर रहा था ,वह था कि बलमा की राधा कौन ? अभी कितनी उसके मोह -पाश में हैं ,आदि -आदि। सोचते -विचारते कब नींद लगी पता ही नहीं चला ,सुबह नींद तब खुली जब अम्मा-बाबूजी के चिल्लम -चिल्ली की आवाज कान में पड़ी। अम्मा  फटे भोंपू की तरह चिल्ला रही थी -

 " कहते -कहते मुँह छिला गया ,पर इनके कान में रुई पड़ी है ।"

उधर से तेरी माँ-बहन ,लकड़ाजी ,अठराजी का पलटवार था। मैं बिस्तर पर आधी सोई -जागी कुहराम सुन मारे डर के उठ बैठी,दीवार पर टंगी घड़ी पर नज़र गयी तो आश्चर्य हुआ ,आठ बज रहे थे और कोठरी में उजाले का नामो निशान नहीं । मैं आँख मलते खिड़की के पास पहुँची ,और ये क्या ! इतनी मूसलाधार बारिश कि दुवार गड़ही में तबदील ,सामने वाली आजी गाल पर हाथ धरे चिन्तामग्न ,पशु घुटने तक पानी में खड़े रम्भा रहे थे ,दिन है कि रात कहना मुश्किल ,आकाश से प्रलय बरस रहा था ..।भीतरी बरामदे में आई, सामने आँगन का हाले आलम यह था कि चूल्हा डूब कर पानी में अपना अस्तित्व खो चुका था। ये तो गनीमत था कि आँगन कमर तक नीचे था वरना अब तक वैतरणी घर में हेल -ठेल चुकी होती ।तुलसी मईया अपने ऊचे आशन पर बारिश के  गिरते धार से दब कर, ओलरकर पसर गयीं थीं । हाँ लौकी -कोहड़े की बेल जरुर मगन थी ,आँगन से छत तक फैली बेलों को मैं देखने लगी, अचानकअम्मा चिल्लाई -

"अरे तिवारी जी कीरा हो ssss"

 और मैं लपक के बरामदे की चौकी पर। बाबूजी चौकी पर से कूद कर लप से कोने खड़ियाये गोजी पर झपटे ..कीरा नाली के रास्ते तैरता आँगन में घूसा चला आ रहा था कि दरवाजे से हाथ में दूध का लोटा लिए चले आ रहे ललइ चाचा हो हो हो हँसते बरामदे में दाखिल हुए ,लोटा झट चौकी पर धर पट बाबू जी से गोंजी छीन साँप को जिधर से आया था उधर ठेल दिया ।अम्मा की तरफ देख कर हँसते हुए -"तू हूँ न भौजी ! 

"ड़ोढ़हा देख के एतना चेकर रही हैंं ,करइत देख के त बेहोशे हो जाएगीं महराज! "


लोटा का दूध ले चुल्हानी पीढ़ा खींच कर बैठ गये ।अम्मा ने मौसम देख बरामदे में उठवना चूल्हा डाल लिया था ,गोइंठी की आंच पा अब तक कोरा चूल्हा आधा सूख भी चुका था ,ललई चाचा अम्मा की इस कला की तारीफ करते -करते चुल्हानी पहुँच गये-

"ए भौजी तनी चा पियावा जल्दी ,साला बुन्नी अस पड़ल की जाड़ा लागे लागल । "

वह अम्मा से कहते कम मुस्कियाते ज्यादा । बाबूजी गुस्से से कुढ़ रहे थे ,मऊ होता और कोई अम्मा से ऐसे बतियाता ,अब तक तो लात मार भगा गया होतो, पर यह गाँव था ,अपने लोग ,घर का मुख्य द्वार सुबह खुलता तो रात को ही बन्द होता ,आदमी तो आदमी मन चाहे तो कुत्ते भी किसी को न पाऐं तो आँगन में टहल आऐं । ऐसा गाँव ,अब बाबू जी की घोर मजबूरी का आलम यह था कि चौकी पर हाथ में इण्डिया टूडे लिए बैठे चाचा को दस मिनट से घूर रहे थे ।मैं ताखे से ब्रश, मंजन ले दाँत बरामदे की सीढ़ियों पर बैठ कर साफ करने लगी ।अन्तत: बाबूजी का धैर्य टूट गया -"अरे क्या मउगाइ करते हो यार ,चौकी की ओर इशारा करके -

"यहाँ बैठो ,चाय आ जाएगी ।"






चाचा गमछा झटकते चौकी पर आकर बैठ गये ,मैं माँ के पास पहुँची ,तब तक वह चार गिलासों में चाय छान चुकी थी ,चाचा ,बाबूजी को चाय दे मैं बाहरी बरामदे में आकर लकड़ी की हत्थेवाली कुर्सी पर पैर रख चाय पीने लगी । पानी से नहाए हुए नीम पर चीड़ियों के कई घोंसले थे, सबसे नीचे गौरैयों का घोंसला ,तीन छोटे -छोटे बच्चे चोंच खोले चांव, चांव, चांव कर रहे थे ,गौरैया पंख का पानी बार- बार झटकती बच्चों की रखवाली करती घोंसले के चारों ओर फुदक रही थी ,नीड़ की चिंता ,बच्चों की फीक्र उस नन्ही चिड़िया के हाव -भाव से साफ झलक रहा था ।मैं टकटकी लगाए मगन देख रही थी कि भहरा कर किसी के पीछे से  मकान के गिरने की आवाज आई, चीख -पुकार,रोना -चिल्लाना और कोहराम ।लोग घरों से निकल कर छपकते हुए भागे जिधर से आवाज आई थी उधर,अन्दर से बाबूजी और चाचा भी निकल कर भागे ।बच्चे जाने के लिए मचलने लगे ,औरतें बाँह मरोड़ कर खींच- खींच भीतर करतीं ।अम्मा भी बाहर निकल आई ,मैंने पूछा-

" क्या हुआ?"

 "कौनों तेलियों का घर गिरा है, लगता है ।"  

अम्मा के चेहरे पर घबराहट थी । सीता ,सुधा ,रुमा, सलवार उठाए मेरे घर की ओर भागी चली आ रही थीं ,आते भींजते छत पर ,मैं भी पीछे हो ली । हम छत पर पूरब के कोने में खड़े थे ,सामने ह्रदयविदारक दृश्य। कच्चा मकान ध्वस्त हो चुका था ,पूरा गाँव देखते -देखते उमड़ पड़ा था ,चन्नर साहू के दुवार पर ,अन्दर फसे लोगों को लड़के हड़बड़ -तड़बड़ डांड, मुंडेर की लकड़ी ,खपड़ा हटा कर निकाल रहे थे ।घर की बूढ़ी औरत आगे की कोठरी में सोई रही होगी उस वक्त ,माथा फूट चुका था। खून से लथपथ ,पहली लाश बाहर निकली ।मैं देख नहीं पाई ,घबड़ाकर नीचे उतर आई ।लड़कियाँ ड़टीं रहीं। विनाशलीला के बाद बरखा के तेवर नरम पड़ने लगे ,दोपहर होते -होते बारिश बन्द हो गयी ।घर आँगन में ठहरा पानी उतरने लगा । सगड़ा तलाब लबालब भर गये। खेतों में रोपी फसल गर्दन तक जलमग्न ।मेंढ़क टर्र - टर्र का राग अलाप रहे थे । चारों तरफ बिछलहर ,चमरौटी ,भरौटी ,अहीरौटी  से भी कच्चे मकान गिरने की खबर आ रही थी । चन्नर साहू की माँ और बेटी के दो अबोध बच्चे मलवे में दब कर मर गये ,बाकियों को मंगल दल के लड़कों ने जान पर खेल कर बचा लिया ।आनन- फानन में चंदा लगा कर ट्रैक्टर पर लाद घायलों को मरदह ले जाया गया ,वहाँ से जिला अस्पताल गाजीपुर ।बाबूजी थैली का रुपया झार आए थे ,आते ही मऊ जाने को तैयार ।अम्मा ने पूछा -

"बाकी का खेत कैसे रोपाएगा ? "

पैसा खतम हो गया ,नज़रें चुरा कर कहते बाबूजी अन्दर चले गये । बाबूजी दो दिन बाद रुपया लेकर आने को कह चले गये ।गाँव में मातमी सन्नाटा । पीछे से डेक- डेक रोने की आवाजें रह- रह कर किसी रिश्तेदार के आने पर आतींं ।मन विचलित हो जाता ।दिन में किसी ने खाना नहीं खाया ।बाबूजी भी चले गये थे।अम्मा ने लालटेन जलाते हुए कहा -

"मेरा मन नहीं है खाने का ,थोड़ा बहुत मन करे तो खालो बेबी!"

मैं अम्मा का मुँह देखती रही। मृत्यु का पहला दृश्य था मेरे सामने ,विभत्स ,खून ,चीख चीत्कार के साथ अपनों को खोने की पीड़ा ।दुखों ,अभाव के बीच खुद को बचाए रखने की जद्दोजहद देखा था ,घर क्या गिरा चन्दर साहू के जीवन से पर्दा उठ गया ।सेर पाव अनाज के बदले नून ,तेल, हरदी बेच कर पुरखों की मर्यादा पर पैबन्द साटे रखने की कोशिश आज बरखा ने धो पोंछ कर बहा दिया । जो भीतर का निकल कर सामने आया ,बस एक नंगा ,भूखा सच ,कुछ भी शेष नहीं ।गाँव न होता ,अपने लोग न होते तो आज शायद पूरा कुनबा उजड़ चुका होता । साहू जी बेहोश थे ,औरत का कमर टूटा था ,दोनों बेटे बगल के चाचा के दालान में सोने से बच गये थे ।दोनो चौदह और सोलह साल के ,बहन भी घायल थी ।गल्ला झाड़ झूड़ कर बमुश्किल एक हजार निकला ,कुछ माँ के गहने ,कुछ गाँव और अपने लोग ।जीवन की जंग जारी थी । पूरे दिन गाँव में चर्चा चलती रही।अन्धेरा घिर आया ।ललई चाचा की माई पैना लिए टूघुर-टूघुर चली आ रही थीं, हाँफते हुए बरामदे की सीढ़ियाँ चढ़तीं अम्मा को आवाज दी - 

"आ बबुआ बो ,कहाँss हो ?"

 आवाज सुन अम्मा बाहर निकल आई ,कुर्सी खींच कर बिठा दिया ,खुद भी बैठ गयीं ।देख कर गोद में पोते को जांते ढ़ेला भइया की माई भी आ गयीं, तनी देर में बड़की माई भी ।औरतें आज शोकाकुल साहू परिवार की विपदा पर चर्चा करने लगीं। आजी सिर पर हाथ धरे बैठीं कह रही थीं -

"अतवार मंगर की पूरदिनिया बरखा जीव खा के ही पटाती है बबुआ बो ! अतवार ,मंगर बड़ा खर दिन होता है ,अभी पाँच जीव लेगी।"

ढ़ेला भइया की माई कपार पर हाथ धरे कह रही थीं ,लड़कियाँ भी धीरे -धीरे जुट गयीं ,हम अन्दर की कोठरी में आकर चौकी पर बैठ गये, गीता दीदी चिन्तीत थी -"कल पूनम की बारात आएगी उपधियाने में ,का जानी कल का होगा ?"

 पूनम उसकी सहेली थी । 

"भदराही होंगीं तो बरसेगा ही ।"

रुना तुनक कर बोली ।

 सीता दीदी -"हे शुभ -शुभ बोलो भाई ,गाँव की इज्जत है ।"

कहते हुए जोर से डपटी । सब सटक गयीं ,सुधा ने धीरे से कहा - "बरखा बुन्नी में दिने नहीं धरना चाहिए बियाह का ।"

सीता दीदी फिर डपटी - "अब जब दिन पंडित बताऐगा तभी न रखेंगे।"

सब चुप हो गयीं । उस रात सब खा पी कर मेरे घर ही सोईं ,एक भयानक रात का अन्धेरा उतरा तो सुबह का स्वागत नीम की शाखाओं पर फूदकती गौरैया ने सपरिवार चहचहा कर किया।



             

                                                               (3)


भोर होते लड़कियाँ अपने घर लौट गयीं,छः बजे थे और सूरज दनदनाते हुए चमकिला हुआ जा रहा था ।मैं ब्रश कर लैट्रीन सीता दीदी के घर जाने के लिए अम्मा से पूछ निकल गयी । सीता दीदी का परिवार हमारे कुनबे का सुविधा सम्पन्न परिवार था ।चाचा प्राईमरी में हेडमास्टर और चाची गाँव की प्रधान ,मैं पहुँची तो आशय ताड़ चाची अन्दर लेकर आयीं ।छोटी चुन्नी से पानी छत पर पहुँचवा दिया, इस घर में हमारा बहुत मान था ।चुन्नी ने हाथ धुलवाया और खींच कर सीता दी के कमरे में ले गयी ,सामने रसोईं में भाभियाँ खाना बना रही थीं। सीता दीदी बिस्तर पर औंधे लेटी कुछ देख रही थी ,आहट पा झट तकिए के नीचे रख दिया ।मैं आकर उनके पास बैठ गयी ।शैतान छोटी चुन्नी उनके उठ कर बैठते ही तकिए के नीचे का रहस्य उद्घाटित कर मेरी हथेलियों पर रख कर हँसने लगी - "इ देखो जीजा की फोटो।"

 सीता लजा गयी ,चोरी पकड़ी गयी थी ।चुन्नी सामने की खुली आलमारी से लोहे का छोटा सा बक्सा उतार लाई ,खोल कर लिफाफे से सीता की तस्वीरें दिखाने लगी ,लड़केवालों को दिखाने के लिए सीता की ढ़ेर सारी तस्वीरें ,कोई साड़ी में ,कोई सलवार कुर्ते में ,एक में चेहरा गुलाब के फूल के बीच ,कोई दिल से झांकता ,मैं एक -एक कर तस्वीरें देख रही थी ,चुन्नी मेरी गोद में झूंकी मचल -मचल कर दिखा रही थी । दीदी ने पूछा -"कैसी लगी ?"

मैंने मुस्कुराकर कहा -"बहुत अच्छी हैं ,जीजा झट पसन्द कर लेंगें। "

उसके गोरे गाल लाल हो गये -" वो तो है बेबी! बलमा की खींची फोटो तो कमाल की होती हैं ,लंगड़ी, लूली से भी लोग धोखा खा जाऐं । ऐसा फोटो बैठाता है कि पूछो मत ,खड़ी रहो स्टूडियो में बाग में पहुँचा देगा ।"

सीता दी खुली हुई जाड़े की धूप की तरह दमक रही थी ,आँखें उसके नाम से मयूर बन नाच रहे थे । मेरा खून उबल रहा था पर खुद पर नियन्त्रण किए हुए थी , बलमा नाम का जीव अब बर्दाश्त से बाहर जा रहा था-" दीदी इसमें क्या कमाल है ,ये सब तो कम्प्यूटर से होता है।"

मेरी बात सुनते वह चीढ़ गयी ,अन्दर से चुन्नी को भाभी ने आवाज दी - "छोटकी बन्नी ,चाय ले जाइए । "

वह चली गयी । सीता ने पिनक कर कहा -"उसके अइसन फोटो बनारस में नहीं उतरती ,बड़की भाभी कह रही थीं । "

बड़ी भाभी बनारस की थीं - "फोटो अच्छी खींचता है कि वह अच्छा है ?"

मैंने आँख नचा कर कुहनियाया । वह शर्म से लाल, मैं आँख मटका रही थी - "भक्क ! तू भी "

कह वह थोड़ी देर ठहरी और फट उठ आलमारी के कोने से किताबों के बीच से एक कागज निकाल लाई -"ये देख उसने मुझे खून से खत लिखा था ।"

मैंने खोल के देखा ,वही पुराना राग ,लिखता हूँ खत खून से । मैं हँस पड़ीं ,बहुत शातिर है ये बलमा ,मुर्गी के खून से चिट्ठी लिख कर लड़कियों को मूर्ख बनाता है ।वह नाराज हो गयी -"अच्छा तुम्हारी नाक सूंघनी मशीन है जो जान गयी खून किसका है ?

मैं हँसे जा रही थी ,तभी चुन्नी बाहर सबको चाय दे हमें लेकर अन्दर आई ।मैं चाय पी ही रही थी कि गीता बुलाने आ गयी -" चलो! चाची बुला रही हैं । "

मैं बेमन से उठ कर चल दी ,इधर घण्टें भर में ललई चाचा ,अम्मा के वीर हनुमान मजदूरा -मिस्त्री पकड़ लाए ।ईंटा पहले सेे हाते में एक टाली पड़ा हुआ था ,गिट्टी -बालू ट्यूबल का लिंटर लगने के लिए आया था जो काम भर वहाँ से मिल गया । मोटर साइकिल पर लाद कर महारे से दो बोरी सिमेण्ट आ गया । ज़मीन नम थी ,आधे घण्टे में हाते में पखाने की नींव खुद गयी । अम्मा महान  बाबूजी की जेब से पाँच -पाँच सौ की चार नोट भांज चुकी थी ,कुछ चौरौंधा पहले का ,जिद की पक्की माता जी ने देखते -देखते एक दिन में ही पखाने की दीवार उठवा दी ।शाम तक मरदह से नीले रंग का कंम्बोड़ भी  आ गया, अगले दिन शाम तक लिंटर की तैयारी ,तीसरे दिन लिंटर लग कर तैयार । बड़की माई देख कर जल भून गयीं, बाबूजी को खबर गयी ,मलकिनिया कुल काम अपने मन का करती है । चौथे दिन बाबूजी प्रकट हुए ,देखते ही ललई चाचा गोड़ छू सरक लिए ,जानते थे अगला दृश्य क्या होगा। मैं पानी दे किताब ले बैठ गयी,मारे डर के मेरी हालत खराब ,ना जाने अगला दृश्य क्या हो ?हो सकता है बाबूजी मार फरुआ देवलिए ढ़ाह दें,वाकयुद्ध की सम्भावना प्रबल थी ,मल्लयुद्ध भी हो सकता था ।अम्मा पखाने की छत पर पानी ड़लवा रही थी तरी के लिए। बाबूजी हाते में पहुँचे ,घूम कर निरीक्षण किया - "तनिको धीरज नहीं है तुममें ,थोड़ा इन्तजार कर लेती इ साला ललईया घटिया क्वालिटी का कंम्बोड़ ले आकर बिठवा दिया । देखना साले भर में टूट -फूट जाएगा ।"

बाबूजी का भनभनाना जारी था ,पर आवाज की नरमी बता रही थी काम अच्छा है ।उनका पुरुष  इगो कैसे अम्मा के इस मर्दाने काम को सहजता से स्वीकारता सो थोड़ी बहुत ड़ांट- डपट लाज़मी था। अम्मा ने धीरे से कहा -"आप का नौ मन गेंहूँ होगा न राधा उठ कर नाचेगी ,लड़कियाँ इनके उनके घर छिछियाती फिरें ,ठीक है ।"

बाबूजी निरुत्तर, गाँव हमारे लिए किसानी के दिनों के लिए सराय मात्र रह गया था ,सुविधाओं का संसार शहर में बसा बाबू जी गाँव को लेकर उदासीन थे,अम्मा सजग ।यहाँ जो भी था अम्मा के प्रयास का प्रतिफल था ,एक अध्याय और जुड़ा ।
एक दिन सबेरे किरन फूटते सीता दीदी की अम्मा घर में आकर खड़ी हुईं -"ए बहिन जी ! आठ बजे ले झट तैयार हो जाइब  ।"

अम्मा झाड़ू लगाना छोड़ आकर उनके सामने खड़ी हुईं -"कहाँ जाए के है जी भिनहिए ।"

कह ध्यान से उनके चिन्तित चेहरे को देखने लगीं।
-"सीतवा के देखे ओकर सास लेहड़ लेके आवतहीय  जी ,महारे । आपक देवर  आपके आ भाई जी के साथे चले के कहलं हैं । जनते हयीं  जनता के ,केहू जाने न।"

 कह बाबूजी को दरवाजे की ओट से कहने चलीं गयी । अम्मा झट -पट खाना बना तैयार होने लगी ,लाल कोटा की साड़ी जिसका किनारा काले और सुनहरे रंग का था अम्मा पहन ,बीच माथे पर लाल रंग का इंगूर का टीका लगा जब कमरे से बाहर निकली पहले से सिल्क का कुर्ता ,खादी की चौड़े पाटे वाली धोती ,सदरी 'बंगाली गमछा ले बैठे बाबूजी ने ऊपर से नीचे तक देख कर मुस्कुराकर कहा -"चलिए मेम साहब ! "
अम्मा लजा गयी ।बस इतना भर देखा था उनके बीच का नेह ,कभी माँ -बाप को एक बिस्तर पर बैठे नहीं देखा । अम्मा का व्यक्तित्व बेहद भव्य ,बाबूजी जब खुश होते ,मेम साहब कह कर  बुलाते ।
जीप में बैठ सभी बड़ी गोपनियता से निकले ,उनके जाते गीता दीदी टोह लेने मेरे घर आई,पीछे रुमा और सुधा भी ,मुझे सख्त मनाही थी ,बड़ी सफाई से मैं टाल गयी। 



                         उधर महारे पहुँच कर सबसे पहले ये तय हुआ कि लड़की किस मन्दिर में दिखाई जाएगी ,बाबूजी ने राय दी,-"अहिरों के राधा -कृष्ण मन्दिर का बरामदा काफी बड़ा है ,लड़की तैयार करने के लिए पुजारी की कोठरी भी मिल जाएगी ,वहाँ ठीक रहेगा ।"

सभी मान गये ,भाभियाँ सीता को ले कोठरी में चली गयीं ,ऊपर बरामदे में दरी बीछ गयी ।दरी के ऊपर नयी चादरें डालीं गयीं । चाय -ठण्डा ,मिठाई -समोसा की व्यवस्था कर ली गयी ।अम्मा और सीता दी की माँ चुपचाप एक कोने में बैठींं, सहमी लड़केवालों की बाट जोह रही थीं । दस बजे एक जीप और अम्बेस्डर कार आकर मन्दिर के सामने रुकी ,मर्द लपकर गाड़ी के पास पहुँच हाथ जोड़ कर खड़े हो गये,जीप में से दस मर्द ,छ: छोटे बड़े लड़के उतरे ,कार में से सबसे पहले लगभग पचपन साल की लम्बी चौड़ी महिला निकलींं ,औरत का रौबदार चेहरा देख कर मर्द सहम गये । आगे की सीट पर औरत की गोद में लगभग तेरह चौदह साल की लड़की बैठी हुई थी ,वह भी निकली ,हाथ -पैर झटक कर सीधा करने लगी ।यह लड़के की छोटी बहन थी।औरत ने पीछे बैठी औरतों को बाहर निकलने का इशारा किया ।तीन की सीट पर पाँच कोंच कर बिठाई गयी थीं ।बेचारी घूँघट सम्हालते बाहर निकल औरत के पीछे खड़ी हों गयीं । सीता के बड़े भाई ने झूक कर औरत के पैर छुए और बड़ी नम्रता से झूक कर कहा -"चलिए आप लोग ऊपर ।"

औरत अपने समूह के साथ पीछे हो ली ।मर्द उनके पीछे ,देख कर स्थिति स्पष्ट थी कि घर में मातृ सत्ता का प्रभाव था । चाची और अम्मा ने एक तरफ औरतों को हाथ जोड़ बिठाया ,दूसरी तरफ गोलाई में मर्द बैठ गये ,भाई भाग -भाग कर चाय -पानी करा रहे थे ,पहले मिठाई, पानी फिर ठण्डा, समोसा चला ।लड़के के पिता ने डकार लेकर आदेश दिया - "हे तिवारी जी ! जिस कारज के लिए आए हैं पहले शुरु किया जाए । "

सबकी साँसे जहाँ की तहाँ अटक गयीं ,बड़के भईया नीचे गये ।थोड़ी देर में दोनों भाभीयों संग पीले रंग की साड़ी में सिर झुकाए सीता पहुँची ,अब तक मौन बैठी बाकि औरतों में हरकत हुई ।एक ने घूँघट उठा कर कहा -"इहाँ बैठाइए ।"

सामने सास थीं ,कहने वाली घर की बड़ी बहू थीं ,इस कदर घूर रही थीं जैसे कौवा शिकार को घूरता है।  दुबली -पतली सीता बीच में सास के सामने बिठा दी गयी ,थोड़ी देर लड़की को घूरने के बाद नाक फुलाते हुए लड़के की माँ ने कहा -"रोगियाह है का जी ,बड़ी पातर है। "

सबकी साँस गले में अटक गयी ।अम्मा ने सुना की झट उत्तर -"हम भी ऐसे ही थे बहिन जी जब ब्याह हुआ । "

लड़के की छोटी बहन को देख कर एक तार और जोड़ा -"आपकी बबुनी भी तो ऐसी ही हैं।"

 सास की भौंहें तन गयीं -"तनी बताओ तो साग में रस्सा कैसे लगेगा ? "

पूछ सीता का मुँह एक टक देखने लगी ,अम्मा ने हँस कर कहा -"बता दो बच्ची!"

सीता ज़मीन में नज़रें गड़ाए धीरे से बोली -"साग में रस्सा नहीं लगता । "

बाबूजी का पारा चढ़ गया -"आप के यहाँ ए मिसिर जी ,करैलियो का रस्सेदार बनता होगा ?"

सभी सुनते समवेत हँस पड़े। सास पिनक गयी ,कोने में पति को ले जा कर कुछ समझाया -बुझाया ,वह आते ही मर्दों से बोले -"चलिए हम लोग तनी नीचे चल कर जरुरी बात कर लेतें हैं ।"

.बाबूजी की तरफ देख कर- "इहाँ मेहरारुओं में हम क्या बैठें। "

मर्द उठ कर चले गये ,लड़के की माँ सीता के पास आकर निंगाझोरी करने लगी ,सिर का पल्ला हटा कर पीठ से लेकर गर्दन तक देखा ,साड़ी उठा कर पैर,घूमा -फिरा कर चेहरा और हाथ,मुँह में उंगली डाल कर दाँत गिने ।अम्मा और चाची अन्दर ही अन्दर फूंफकार रही थीं -"अभी कुछ बाकी है की हो गया?"

आवाज सख्त थी अम्मा की।उधर से जवाब भी तनाके से आया-"सुनिए मस्टराइन ! हाथ नचाते हुए ,एग्गो थरिया लेने जाते हैं तो चार बार बजा के लेते हैं हम ,आवाजे बता देती है कि कितना ठोस है। "

अम्मा को घूरते हुए ,सीता की तरफ आँख दिखा कर -"इ तो हमारे लाख टके के बेटे का मामला है।बोरा से रुपया उझिलें हैं पढ़ाने में । "

अम्मा रुँआसी हो गयी 'लड़की पक्ष की औरतों का कलेजा बैठ गया। उधर की औरतें आपस में खुसुर -फुसुर कर रही थीं .अब तक मौन तमाशा देख रही लड़के की छोटी बहन ने सीता से कहा -ए भाभी !एक ठो गाना सुनाइए ।"

चाची की बांछे खिल गयीं ,हँसते हुए कहा-" बबुनी को भाभी पसन्द आ गयी लगता है। "

लड़की बिल्कुल माँ पर गयी थी ,तुनक कर कहा -"पसन्द नहीं होती तो अम्मा एतना देर देखबे नहीं करती ।"

सभी हँस पड़े ,सीता ने लम्बी साँस ली ।भाभियों की बाछें खिल गयीं ,चाची चहकने लगीं  । अम्मा ने मन ही मन शिव जी को माथा नवाया ।  लड़की ने फीर कहा -"गितिया गाइए भाभी ।"

सबने हाँ में हाँ मिलाया । अम्मा ने आरम्भ किया -


"शिव शंकर चले कैलाश 
बुंदिया पड़ने लगी ssss


सीता के साथ भाभियाँ भी गाने लगीं ,ये हर्ष नाद मर्दों के कान में पड़ा ।चाचा -बाबूजी मगन हो गये । इधर भी लेन- देन तय हो चुका था ।पंडित से लगन दिखाना शेष रह गया , सभी ऊपर आ गये ,लड़के के पिता ने औरत से कहा -"अपना मायाजाल बटोरिए ,देखिए बरखा बुन्नी का दिन है ।"

सीता की सास ने लड़कों को कह गाड़ी में से फल, मिठाई, कपड़ा निकालने का आदेश दिया। सीता के सर पर लाल बनारसी साड़ी धर सास ने खोइंछा भरा ,अँगुठी पहनाया ।एक हजार एक सगुन का दे सबको सगुन देने को कहा।हजार पाँच सौ की नोट से आँचल भर गया । 

"अरे भाई ! इहां फोटो नहीं खींचाता है का जी बजार में ? "

एक सज्जन ने ललकार दी ।

"खींचाता है ,खींचाता है जी"

 सीताके पिता चिंहुक कर कहेंं और बड़े बेटे को भगा कर बलमा को बुलाया । दस मिनट में बलमा गले में कैमरा लटकाए हाजिर ।फोटो खींचाने लगा ,फिरसे साड़ी ओढ़ाई गयी ,अँगुठी पकड़ कर दिखाई गयी ,सबने अपना -अपना रुपया उठा कर फिरसे रखा।सीता उठक- बैठक करते सबके पैर छूती ।बलमा स्माइल प्लीज कहता और खचाक की आवाज से फोटो कैमरे में कैद हो जाता ।बलमा सीता को कनखियों से देख थैंक्यू जरुर कहता ,उसके खत की दिवानी लड़कियों में एक सीता भी आज पराई हो रही थी ।यही बलमा की नियति बन चुकी थी । अपने जिन हाथों से वह लहू से प्रेम भरी पातियां लिखता ,उसी हाथ से उनके सगुन के रस्म अदायगी के फोटो खींच एक सौ एक का नेग और मिठाईयाँ ले बुझे मन से सर झुकाए चला जाता।
                             सीता का ब्याह तय हो गया ,दिन जाड़ों में पड़ा ।हम शहर लौट आए ।स्कूल शुरु हुआ और गाँव की दुनिया के कपाट स्मृति पटल पर बन्द हो गये हाल फिलहाल ।यहाँ भी वो दौर लड़कियों के गुलाबी प्रेम -पत्रों के इन्द्रधनुषी वितान तान नित नये करवटें लेता । मैं अति साधारण सांवली लड़की ,प्रेम -पत्रों से वंचित ,अक्सर मनगढ़ंत कहानियाँ बना कर लड़कियों को सुना ,उनके दिलचस्प किस्से सुनती और सोचती कि ये पहले वाले प्यार का एहसास कैसा होता होगा ? चल रही थी मैं दुनिया के मायावी रंगों की रंगोली बनाते बिगाड़ते और दिन समय के घोड़े पर बैठा सरपट तड़बक- तड़बक दौड़े जा रहा था । हथेलियों पर ओस की बूंदे सुबह दूब से झाड़ मैं ओंठों पर रख लेती ,आत्मा ऐसी तृप्त होती जैसे पी लिया हो अमृत ,अन्दर तक भींग जाती ।सामने खिड़की से कोइ झांकता सा महसूस होता और मैं धीरे से अन्दर भाग जाती ।एक लुका -छिपी का खेल जारी था ,न वो परदा उठाता न मैं आगे बढ़ती ।वो भ्रम था कि सपना मैं सोचती रही और बिहाने मन की ड़ाली पर एक लाल कली प्रेम की लटक जाती ,पुष्पित ,पल्वित होने के मौसम की आस में मैं अक्सर भोरे हाते में जाती पर ना जाने कौन सा भय था कि खिड़की पर आहट पाते सीधे घर में ।खेला था,चलता रहा। इधर नवम्बर में सीता दीदी का ब्याह हो गया, मैं सजी -धजी दुलहे की बड़ी साली की भूमिका में,बलमा भर माड़ों कैमरा ले मंडराता जैसे पूरे जगत को कैमरे में घेर लेगा।उसका नागिन नाच तो कमाल का था ।थोड़ी बहुत दारु का आलम यह था कि दाँत में रुमाल जांते साथ नाचने वाले के ऊपर पसर जाता ,बेहद अश्लील नाच ,जिसे औरतें आँचल से मुँह छिपाए उचक -उचक देख रही थीं ।बलमा छाया हुआ था विवाह समारोह में ,अम्मा के आदेश पर मेरी भी कुछ फोटो उसने बिना मुझे स्माइल प्लीज कहे खींचा।हास- परिहास,गीत, ढ़ोलक की थाप ,मन्त्रों का घोष और सात फेरों के साथ रोती -धोती सीता चली गयी साजन के देश ।एक- एक कर टोले की सारी लड़कियाँ ब्याह कर चली गयीं ,छोटी सयानी हो गयीं । मैं बची रही ,ललई चाचा की माई अम्मा से इस साल मुँह खोल कर कह ही दीं - "केकर बेटी एमें. बीए ,करताड़ी स ए बबुआ बो ,लइकी उरठ होत जात हिया ,निक लागे चाहे बाउर ,बियाहे क एग्गो उमर होले। "
अम्मा चुप ही रही ,जानती थी मेरा रुदन ब्याह के फतवे को सुनते अस होगा कि कोठी अटारी बह -दह जाए। एम.ए .अन्तिम वर्ष और पिता की देहरी से जड़ समेत मुझे उखाड़ने की तैयारी युद्धस्तर पर जारी हो गयी ।खिड़की वाला मामला भी जमा नहीं ,कालेज में न किसी ने हसरत भरी निगाह से मुझे देखा और न मुझे कोई जमा ,मेरी दुनिया अलग,सोच और विचार अलग ।इस तरह उम्र के बाईस साल बिना प्रेम -पत्र लिखे निकल गये। आज जब छोटे -छोटे बच्चों को पढ़ाते क्लास में बगल वाली लड़की की कॉपी के पीछे ऑय लव यू लिखा देखती हूँ मन के कपाट हिलने -डुलने लगते हैं और मैं लौटतीं हूँ बाईस साल पहले की दुनिया में ।वह मेरी दुनिया जिसे कलेजे से साटे स्त्रियों की सैकड़ों पीढ़ियाँ मर जाती हैं नैहर की अन्तिम चुनरी -पियरी की आस में ,आज भी अम्मा गा रही है आम के नीचे बैठ कर - 

"हे गंगा मइया तोंहें चुनरी चढ़इबेंssss 

संइयाँ से कइद मिलनवा sss...हाय राम "


हाय राम गाते उसका चेहरा गुलाबी हो जाता है ...जैसे गीता ,सीता और उन तमाम लड़कियों का हुआ था ,जिनके पास गुलाबी प्रेम- पत्रों का इतिहास था और मैं हतभागी इससे वंचित रही ।
                            

                                                                          (4)

परीक्षा निकट आते- आते मैं भी विदा कर दी गयी ,छूट गया गली,मुहल्ला ,सखी,सहेली छूट गयीं ,जिस घर में जन्म लिया वह पराया हो गया।नितान्त अपरिचितों के बीच पहले परिचय बढ़ाने जैसा कुछ भी नहीं था ,सभी अधिकारी और मैं जी जी जी रटती तोता । एक सुनहरा पिंजड़ा ,जहाँ सबसे पहले शरीर कैद हुआ फिर सपने। मायके जब भी जाती मऊ से ही लौट आती ।गाँव जाने का कोई नाम ही नहीं लेता ,देखते-देखते   शादी के बारह साल गुजर गये। अबकी गर्मियों में भाई तैयार हुआ गाँव ले चलने को तो मन की मुराद पूरी हुई ।हम सुबह तड़के उठ कर तैयार होकर घर से निकले ,कार में आगे अम्मा और ड्राईब करता भाई ।पीछे मैं अपने बच्चों और भावज के साथ।चालीस मिनट में हम महारे चट्टी पर पहुँच चुके थे ,सबसे पहले भाई का आदेश था शिव जी के दर्शन फिर कुछ यहीं नाश्ता तब गाँव चलना है । हम मन्दिर के रास्ते पर अभी चार कदम ही बढ़े थे कि पीछे से जोरदार आवाज आई -

 "पंडी जी पाव लागीं ।"

आवाज कुछ जानी -पहचानी थी ।मैं झट पीछे मुड़ी ,सामने से चेकदार नीली लूँगी ,गले में मैली गमछी ,शरीर पर पीले से सफेद हो चुकी टी-शर्ट पहने बलमा भागा चला आ रहा था ।आते ही अम्मा का पैर छू बोला -

"चाची पाव लागीं,घीउवा खरा देले हयीं लेले जाइब।"

अम्मा मलकिन से चाची हो चुकी थी।  मैं ध्यान से उसे देख रही थी ,भाई से कहा -"दर्शन करके आइए ,गरम- गरम पकौड़ी निकल रही है डॉक्टर साहब ।"

मैं हतप्रभ खड़ी कभी उसे देखती ,कभी चट्टी से बाजार में बदल चुके महारे को।सड़क के दोनों तरफ लाईन से दुकाने .स्कूल ,अस्पताल ,कतार में खड़े यात्रियों की बाट जोहते ऑटो ।ब्यूटी पार्लर ,सैलून से लेकर आधुनिक साजो सामान की अनगिन दुकानें ।नहीं दिखी तो केवल बलमा की दुकान ।भाई ने डांट लगाई -"अब खड़े ही रहिएगा कि दर्शन भी करिएगा।"

 मेरी पाषाण प्रतिमाओं के प्रति आस्था इधर कम होती जा रही थी,बेमन से मैं पीछे होली।मन्दिर के गर्भ गृह में शिव सपरिवार विराजे थे।यहाँ शिवलिंग की उपासना नहीं होती,शिव के बगल में शिवा ।हिन्दू देवी देवताओं में शिव मेरे प्रिय रहे।सृष्टि के पहले साम्यवादी महापुरुष । भाई शिव स्तुति में लीन,आधे घण्टे उसका मन्त्रोचार चलता रहा ।अन्त में हर हर महादेव के घोष के साथ पूजा सम्पन्न हुई।
                         हम चौराहे पर पहुँचे,भाई ने माँ से कहा -"यहीं चाय नाश्ता कर लेते हैं ,गाँव पर सबेरे -सबेरे कौन चूल्हा फूंकेगा?"

 अम्मा इशारा समझ गयी ,सब कोने की चाय की दुकान पर पहुँचे ,मैं दुकान का बोर्ड देख कर चिंहुक गयी । "बलमा जी मिठाईवाले "। बलमा टेबल अपनी गमछी से साफ कर सबको बिना कहे चाय पकौड़ी दे गया ,गरम प्याज ,मिर्च की पकौड़ी बाजार की बहुत दिनों बाद खायी थी ,एक अजीब स्वाद होता हैं इन पकौड़ियों का ,घर में लाख जतन कर लो ऐसी नहीं बनती। सामने चूल्हे पर कढ़ाई में एक औरत लगातार पकौड़ियाँ तले जा रही थी।शीशे की छोटी सी आलमारी में लड्डू और चिंनियहवा बर्फी सजी थी ।मर्तबान में बताशे और लाल,नीली,पीली टाफियाँ।हम चलने लगे तो बलमा ने मेरे बच्चों के हाथ पर टाफियाँ रख खिलखिलाकर कहा-"स्माईल प्लीज ! "

बच्चे साथ- साथ हँस पड़े। माँ ने दूध का डिब्बा घी के लिए पकौड़ी तल रही औरत  को पकड़ा कर हिदायत दी -"साफ से रखना दुल्हिन।"

उसने मुस्कुराकर स्वागत किया । हम गाड़ी में बैठ गाँव के रास्ते पर आगे बढ़ रहे थे ,मन में आज फिर उथल -पुथल मची थी, मैंने माँ से पूछा -"बलमा तो फोटो खींचता था ?

भाई हँस पड़ा -"बेचारे का किसी ने कैमरा चुरा लिया ,दूसरा खरीद नहीं पाया। "

वह कहते हुए  हँसे जा रहा था,सुना है ,साला एक नम्बर का लोफर था । अहिरों ने किसी लड़की की फोटो इसके साथ देख कर बहुत कूटा था । "

आँख के इशारे से -"ये जो औरत थी दुकान पर ,उसे भी कहीं से भगा कर लाया है। "

अम्मा ने मौन तोड़ा ,घर -घर कैमरा हो गया है,कौन यहाँ तक आने की जहमत उठाए ।"

भाभी की प्रतिक्रिया भी आ गयी -"अब तो मोबाईल में भी कैमरा होता है।"

कुल मिलाकर निष्कर्ष यह था कि अब किसी को यहाँ तक केवल फोटो खींचाने के लिए आने की फुर्सत नहीं थी।गाँव की कच्ची सड़क उबड़ -खाबड़ तारकोल की सड़क में बदल गयी थी।गाँव के बाहर तीन चार दुकाने लाईन से दिखाई दे रहीं थींं।बाग की तरफ कन्या उच्च विद्यालय का बोर्ड दिखाई दे रहा था।कच्चे मकान लुप्तप्राय हो चुके थे, टोले के लगभग सारे घर पक्के बन चुके थे।उफ्फ! दरवाजे पर आते मेरी जान सूख गयी ,विशाल नीम जिसकी शाखाओं पर झूला ड़ाल गाँव भर की लड़कियाँ झूलती थीं , लापता ,चारों तरफ ईंट की दीवारें ,सामने ढ़ेला भइया के घर की कुछ लड़कियाँ खटिया पर बैठी लैपटाप चला रही थीं ,देखते अन्दर चली गयीं।मैं उन्हें अन्दर जाते देखती रही ,कभी हमें देखते उधर से लड़कियाँ भागते हुए आती थीं ।दिन भर खुले रहने वाले दरवाजे भिड़के हुए ,जानवर के नाम पर घरों में बमुश्किल एकाध गाय टीनशेड़ में दिखाई दे रही थीं।अम्मा फाटक खोल अन्दर बहू को लेकर जा चुकी थींं ,मैं स्तब्ध अतित और वर्तमान की संधिरेखा पर खड़ी कसबे में बदल चुके अपने गाँव सराय मुबारक को देख रही थी।नेपथ्य में अम्मा गीत बज रहा था .......
निमिया क पेड़ जनि काटा ए बाबा
निमिया चिरइया लेली बास .......



एक अस्तित्वहीन गाँव की दहलीज पर खड़ी मैं तलाशने लगी अपना गाँव सराय मुबारक जो अब कभी नहीं मिलेगा उन लड़कियों के स्वच्छन्द प्रेम पत्रों सा। 
शाम को हम लौटते वक्त एक बार फिर रुके बलमा जी स्वीट हाऊस पर । क्वार का महीना,शाम सिहरने लगी थी ,लोग अपने अपने घरों को लौट चुके थे। इक्के-दुक्के लोग दुकानों पर दिख रहे थे।अन्धेरे की हल्की चादर पसरने लगी थी।अम्मा बलमा बो से घी ,बताशे की खरीद-परोख्त कर रही थी,भाई सब्जी वालों से ताजी सब्जियाँ खरीदने निकल गया।मैं बलमा की दुकान के आगे टीनशेड़ में रखे ब्रेंच पर बैठी चुपचाप शिवाले के सूने रास्ते को देखती अतित की परछाईंयों में उलझी ,मेले-ठेले,सखियों के कलरव तलाशती विचारों में खोई ,रह -रह कर नम आँखों से बर्तन धोते बलमा को देख लेती,वह भी मुझे देख रहा था और तेजी से हाथ चला रहा था,शायद जल्दी काम निबटाना चाहता था। बर्तन धो कर चौकी पर रख वो फुर्ती से मेरे सामने चाय की केतली थामें आकर बैठ गया।दो भरुकों में चाय ढ़ार पीने का आग्रह कर एक टक मुझे निहारता रहा।मैंने मुस्कुराकर कहा-"गाँव शहर हो गया।"
वह नम आँखों और भारी गले से मेरी बात दुहरा गर्दन झुका चाय पीने लगा। 


"आपने स्टूडियो बन्द क्यों कर दिया?"मैंने पूछा।


बलमा दर्द से भर उठा, गमछे से आँख की नमी पोंछते हुए बिफर पड़ा -"अब जरुरत किसे है बहिनी परजा -पसारी की। हम तो गाँव -गिरांव के रियाया की परजा थे।नेग -जोग पर खुश हो जाने वाले।अब तो लोगों को सब कुछ मोल लेने की तलब है।इ ससुरी मोबाईल तो अउर जुलमी है।" मन्दिर की ओर इशारा करके- "अब लड़की देखाई पर मोबाईल से लोग फोटू खींच बीडियो भी बना लेते हैं।कौन मंहगा फोटो खींचवाएगा अब?"


मैंने उसका मन रखने के लिए कहा- "लेकिन उसकी फोटो वैसी नहीं आती जैसी कैमरे की।"


वह खुश हो गया-"हाँ ,इ तो है,फैटोग्राफी तो कला है,एक दम कोहार के चाक जैसी।बड़े सधे हाथ से फोटो का ऐंगल ठीक बैठता है। इ ज़माना क्या जाने की कैमरा का फोटो जो चित्र निकालता है उ इ मोबाईल और हउ डीजिटल कैमरा का निकालेगा। "

सामने के आधुनिक फोटो स्टूडियों को दिखाते हुए बलमा कह रहा था।मैं हूं -हाँ कह कर हामी भरती उसके दर्द के उमड़ते सैलाब को देख रही थी।
लम्बी साँस छोड़ते बलमा ने मेरे चेहरे की ओर देख कर कहा-"इस इलाके की हजारों लड़कियों के ब्याह कराए हैं हमने बहिनी।आपकी भी खींची थी।"

अम्मा की तरफ देख कर-"चाची ने बहुत शानदार पैंट,बुसर्ट दिया था आपके ब्याह में।"

मैं मुस्कुरा कर रह गयी। भाई हाट बजार कर आकर हमारे पास बैठ गया-"बलमा भाई! चाय पिलाइए तो निकला जाए।"

वह केतली उठा कर भट्ठी की तरफ चल दिया।भाई ने भौंहें नचा कर व्यंग्य से पूछा-"क्या बतिया रहा था इतनी देर से ?"

मैं उसके पुरुषत्व से भरे चेहरे को देख कर क्रोध दबाते हुए इतना ही कह सकी-"अपना दर्द।"

वह उठ गया ,चाय पी गाड़ी में सामान रख मुझे आवाज दी-"चलिएsssss ,कहाँ अटकी हैं? यहीं रहने का इरादा है क्या?"

वह हँस रहा था।सभी गाड़ी में बैठ चल पड़े,गाँव पीछे छूटने लगा।आज अपने समय का हर दिल अज़ीज बलमा जिसके मजनू मियाँ वाली फितरत से मुझे नाराजगी थी वह एक दम से मेरी सहानुभूति का पात्र बन चुका था।.नहीं पता कब लौटूंगी फिर उस देस जहाँ बलमा के रक्तरंजित असंख्य प्रेम -पत्र बिखरे पड़ें हैं मेरे गाँव की लड़कियों के मासूम प्रेम में पगे।मैं डूबती गयी ,जैसे डूबती है शाम भोर के आगोश में ,गाँव छूटता गया ,पीछे, बहुत पीछे।

                  और हाँ ,अन्त में एक बात बताना जरुरी है ,आप बलमा जी के सत्य को तलाशने मेरे गाँव का टिकट मत कटा लीजिएगा। बलमा का नाम बलमा कैसे पड़ा यह भी एक रहस्य है जिसे केवल उस दौर की औरतें जानती हैं । यहाँ इस रहस्य से पर्दा नहीं उठेगा ,इस मामले में ये औरतें युद्धिष्ठिर के शाप से मुक्त हैं।आप जितना चाहें ज्ञान बघारें ,उपदेश दे लें ,वह एक ही राग अलापेंगी।उधव मन न भये दस बीस।यदि बाबूजी से पूछेंगें, वह अपनी गहरी धसी आँखों को सिकोड़ कर गंजे सिर पर हाथ फेरते अम्मा की तरफ प्रश्न उछालेंगे -"इ बलमा कौन है जी?"

फिर मुस्कुराकर गहरा तंज कसेंगे-"मोटरसइकिलिया पर तो आप ही बैठी थीं ।"

अम्मा भी कम नहीं ,उसी अदा से मानस में गर्दन झुकाए उत्तर देंगीं-"इ बेबिया भी आज कल कुछ भी लिखती है।"

थोड़ा क्रोध भी आएगा ,धम्म से मानस की पोथी बन्द कर कहेंगी-"जब लंका काण्ड आता है बवाल होता है। "

जी हाँ ,बवाल की पूरी सम्भावना है ,इस लिए तलाशना हो बलमा को तो रोकिए हमारे गाँवों को कंकरिट के जंगलों में बदलने से ।देखिएगा बलमा मिल जाएगा किसी गाँव की चट्टी पर गर्दन में कैमरा लटकाए ,खचाक से आपकी फोटो खींचते हुए कहेगा-"स्माइल प्लीज !"और फिर उसी नफासत से गर्दन झूका कर कहेगा ,थैंक्यू!

सोनी पाण्डेय 
कृष्णा नगर
मऊ रोड
सिधारी,आज़मगढ़
उत्तर प्रदेश





सोमवार, 17 जुलाई 2017

सोनी पाण्डेय की कहानी

                                                                      -सोनी पाण्डेय  

             टूटती वर्जनाऐं                        
                     
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राजधानी एक्सप्रेस सरपट भागी जा रही थी।ज्योत्सना अतित को कुरेदती ना जाने कितने पड़ावों पर ठहर कर सोचती कि एक कुल कथा जिसके फलने -फूलने से लेकर एक -एक घटना क्रम की वह गवाह रही कि कैसे छोटी -छोटी आस्थाऐं विशाल मिथक में बदलती हैं और हम भय में जकड़े तमाम ज्ञान विज्ञान के बाद भी थोड़ा बहुत सरलीकरण कर उसे पोषित करते हैं। उसे महिला महाविद्यालय में स्त्रियों की आन्तरिक सामाजिक संरचना पर तीन दिन व्याख्यान देना था। वह अनायास खुद के भोगे हुए सच को सोच मुस्कुरा उठी....लौटने लगी अतित की पगडण्डियो़ं पर जहाँ से उजालों के मुख्य सड़क को तलाशा था......

बाबा ब्रह्मदेव तिवारी के दुवार पर भिनहिये से कल्लुवा की माई  डुगडुगी डिबीर-डिबीर बजा रही थी। डीब-डीब-डीब के बेढब आवाज से तंग आकर ज्योत्सना ने ननद से पूछा- ‘‘बीबीजी ये आपके यहाँ कौन सा रिवाज है कि ब्याह के तीसरे दिन भी डीब-डीब लगा हुआ है।’’ मंजू नयी नवेली दुल्हन का मुँह आवाक हो ताकने लगी, चेहरे का रंग एकदम उतर गया, जैसे किसी ने चोरी पकड़ ली हो। मंजू ने पूरी सजगता के साथ उत्तर दिया- ‘‘जब तक कक्कन नहीं छूटता।’’ ज्योत्सना ने दूसरा सवाल दागा- ‘‘और कक्कन कब छूटता है? हमारे यहाँ तो विदायी वाले दिन ही छुड़ा देते हैं? मंजू को गुस्सा आ गया। भाभी! ये आपका घर नहीं है, यहाँ के रस्मो-रिवाज अलग हैं, समझी। अम्मा को भेजती हूँ, जो-जो जानना है पूछ लिजियेगा।’’तमक कर जाने लगी, ज्योत्सना को ध्यान आया कि वह अभी नव वधू है, ननद को नाराज करना ठीक नहीं। तेजी से दरवाजे की तरफ बढ़ती हुयी छोटी ननद का हाथ थाम लिया- अरे! रे ऽऽऽ मेरी प्यारी बीबीजी नाराज हो गयीं । गालों को हथेलियों से थपथपाते हुए कहा- चलिए अभी तो आपको प्यारी-प्यारी चूड़ियाँ और नगों वाली बाली देनी है, जिसे आपने मेरे मेकअप बाक्स में पसन्द किया था। मंजू पिघल गयी। ननद-भौजाई चूड़ीकेश और मेकअप बाक्स में उलझी छेड़-छाड़ में मगन थीं कि नाउन बुकवा लिए कमरे में दाखिल हुई- ‘‘चलो हो दुलहिन तनी मीज दें ,कहते चटाई बिछाकर बैठ गई। ज्योत्सना को सरसों के उबटन से उबकाई आती थी। मई का महीना और तीन दिन पहले उसके घर की नाउन के हाथों का पीसा हुआ बुकवा फुलहा कटोरे में लेकर नाउन बैठी मुस्कुरा रही थी। मंजू भाभी के मनोभाव ताड़ गयी- ‘‘मुस्कुराते हुए भाभी से कहा- बुकवा तो यहीं लगेगा भाभी, रिवाज है, पाँच दिन तक  नइहर का फिर सवा महीना ससुरे का बुकवा लगता है हमारे यहाँ बहुओं को, कोहनी से ढकेलते हुए भाभी से कहा- सोचती क्या है कूद जाईए मैदान में।’’ ज्योत्सना ने खीझते हुए कहा- मुझे सरसों  के तेल से एलर्जी है। उसी क्षण चाची सास अपने साल भर के बेटे को गोंद में लिए आ धमकी- ‘‘क्या हुआ ओ नाउन, कनियवा बुकवा लगवाने में निहोरा करवा रही है क्या?’’ नाउन मुँह चमकाकर रह गयी। ज्योत्सना मुँह गिराकर चटाई पर बैठ गयी, नयी नवेली दुल्हन का यह व्यवहार शाम तक पूरे गाँव-जवार में फैल जायेगा जानती थी। माँ की बात याद आयी- ‘‘परजा-पसारी चार घर की घुमनी जीव होती हैं रंजू ,ससुराल में इनसे सम्भल कर व्यवहार करना, वरना अफवाह उड़ाते देर नहीं लगेगी।’’

  ज्योत्सना ने पाँव की पाँच उंगलियां रूमाल से पैर ढककर आगे बढ़ाया, चाची सास ने तपाक से लिहेड़ी लिया- ‘‘हे इनसे का लजाना, साले भर में नंगटे मिसाओगी। मंजु हा-हा-हा हँसने लगी। नाउन ने पैर खींचा- ‘‘दा दुलहिन निम्मन से मीज देइं।’’ ज्योत्सना रूमाल दाबे सिर झुकाये बैठी रही। सास दूसरे बेला का मांग बहोरने आयी- ‘‘ऐ नाउन! चला जा- आपन माया जाल हटावा, मांग बहोरे के है। नाउन हाथ में का बुकुवा छुड़ाकर उठ खड़ी हुई। पंडी बाबा को कितने बजे बुलाना  है? बता देयीं त कल कहते आउंगी। आज चार दिन हो गया, पुजइया काल्हे होना है न ? ज्योत्सना की सास सिर का पल्ला ठीक करते हुए बोली- कुल पोवत करत चार त बजीए जाई- पाँच बजे के कहि दिहा। और ज्योत्सना के आँचल में पाँच बड़े-बड़े लड्डू डाल कर सिन्होरा से सिन्दूर निकाल कर पूरा मांग पीला सिन्दूर भर गयी। गर्मी में इतना सिन्दूर देख ज्योत्सना रूआंसी हो जाती किन्तु ससुराल में नवेली दुल्हन का विरोध सम्भव नहीं था, इसलिए अन्दर ही अन्दर कुढ़ती रहती।
               अगली सुबह नीम अंधेरे सास आकर जगा गयी, पूरे परिवार की औरतों की चहल-पहल सुनकर ज्योत्सना चौकन्नी हुई। याद आया आज ब्याह के पाँचवे दिन की पुजइया है जो सुबह पाँच बजे से शाम पाँच बजे तक चलेगी, सास शाम को ही समझा गयी थी। झट-पट नहा-धोकर तैयार हो गयी।मन रोमांचित था। आज कक्कन भी छूट जायेगा। चार दिन बाद हृदयेश को देखेगी, जिसने विदाई वाले दिन पूरे रास्ते यही समझाया कि जो भी माँ कहे करते जाना। महीने भर की बात है बाद में तो साल में एक बार छुट्टियों में गाँव आना होगा। कितना सहज और साल पुरुष है हृदयेश, उसकी हथेलियों को अपने हाथों में लेकर कितनी बार चूमा था उसने सफर में, सोच कर सिहर उठी।
ज्योत्सना एक बात सोच कर दंग थी कि घर-भर के मर्द पूरे दिन आँगन-दुवार एक किए रहते, लेकिन हृदयेश की एक झलक भर उसे पिछले चार दिन में नहीं दिखी थी। गजब का शासन चलता था उसके सास का घर में, मजाल की कोई घर में उनका विरोध कर दे।सास कमरे में दाखिल हुई, पीछे-पीछे छोटी सास हाथ में आटे का फुलहा थाल लिए। सास ने आदेश दिया- ‘‘पाँच बार जय चमइया जी- जय चमइया जी बोल कर छू दो दुलहिन। ज्योत्सना को सुनने में भ्रम सा लगा- जी कौन मईया? ‘‘चमईया’’ सास ने तेज आवाज में कहा। ज्योत्सना आवाज कड़की समझ गयी। चुपचाप उच्चारण कर आँटा छू लिया। सास चली गयी। थोड़ी देर में बूढ़ी आजी सास बड़ी फुआ सास के साथ हाथ में फूल-बताशा, धार लिए आयी और वही आदेश दिया जो सास कह गयी थी। बारी-बारी घर भर की औरतें ऐसे ही कुछ-न-कुछ लेकर आतीं और जय चमइया, कहवा जाती। ज्योत्सना सोच में पड़ गयी। चमइया कौन है भला? मंजू मिलती तो उगलवा लेती या फिर हृदयेश से पूछती। अजीब, पेशोपेश में वह कमरे में साड़ी के आँचल का कोर तोड़ते- मरोड़ते घूम रही थी की नाउन पधारी।

‘‘आइये नाउन, बैठिये।’’ नाउन खुश हो गयीं शहरी पढ़ी-लिखी बहू से आदर पाकर। चटाई बिछाकर बैठ गयी। आज पाँचवे दिन के कटोरे वाले बासी उबटन से मुक्ति का दिन था। नाउन ने नेम पूरा किया और हँस कर कहा- कमासुध कनिया से का मिली? ज्योत्सना ताक में थी। पाँच सौ की कड़कती नोट पर्स से निकालकर नाऊन की हथेलियों में दबाकर रखते हुए कहा- अम्मा जी से मत बताइयेगा, नाराज होंगी। तीर निशाने पर लगा था, नाउन फैल गयी। अरे बहिनी, इ तोहार सास त सछाते चण्डी हई, इनसे के कही? ज्योत्सना ने पूछा- चाची इ चमाइया कौन देवी हैं? नाउन व्यंग्य से मुस्कुरा उठी। ऐ दुलहिन इ राज तोहरे हमरे पुरखन की पेट क राज है। जेके मरत घरी सास पतोह से बतावेले, अईसे ना। ज्योत्सना की जिज्ञासा प्रबल हुई। काहे? .....बहुत तो नहीं जानती ऐ दुलहिन, बाकी ऐतना है कि कौनो चमाइन को तोहरे पुरखा फसायेे रहे, पुजइया लेती, नाहीं त वंशे नहीं चले,कह कर उठी और दाऐं -बाऐं चोर नज़र से देख कर चल दी। ज्योत्सना सुनकर दंग रह गयी। हद है इतने शिक्षित परिवार में ऐसा ढ़ोंग।
         दोपहर में पकवान बनने के बाद ज्योत्सना को बड़ी ननद रसोई में ले गयी। सास निर्देश देती रही, ज्योत्सना ने कोरे चूल्हे पर कढ़ाई चढ़ाकर पाँच पूड़ी बनाया, थोड़ा सा हलवा नेम के लिए, पहली रसोई का भोग भी ‘‘चमइया’’ को पहले चढ़ता था। दो बजे हृदयेश और ज्योत्सना का नाउन ने गठजोड़ किया, पति-पत्नी ने चार-दिन बाद एक दूसरे को कनखियों से निहार, छोटी चाची सास ने देख लिया- देखिये-देखिये बड़का बबुवा, आज इनके भोग का भी दिन है। ‘‘लड़कियाँ ठहाका मारकर हँस पड़ी, सास ने आँख तरेरा तो चाची सास चुप हो बैठ गयीं। औरतें लड़कियाँ गाती-बजाती भोग के सोलह थाल लेकर पैदल चल रही थीं। आगे-आगे नाउन सिर पर दौरी में पूजन का सामान अछत, फूल, सेन्दूर आदि लिए और सास भर लोटा धार लिए चल रही थीं। लड़कियाँ गा रही थीं- गोरा बदन नीली साड़ी ओ साड़ी वाली....।

ज्योत्सना नंगे पाँव कच्चे रास्ते पर चल रही थीं। ज़मीन तवे की तरह जल रही था। कोस भर चलने के बाद पति से पूछा, अभी कितना चलना है? बस, सामने वाली बारी में। ज्योत्सना ने पारदर्शी चादर में से देखा, सामने घना आमों का बाग पोखरा और एक छोटा सा कमरे नुमा मन्दिर दिखाई दे रहा था।
औरतों का समूह पोखरे के पास बने चबूतरे पर सामान रखकर बैठ गया। सभी थक चुकी थीं। सास ने हृदयेश से पूछा- कै बजा? साढ़े तीन,.... अरे राम रे। ऐ छोटकी दुलहिन के बता रे पूजा का विधि ,हम पोखरे से पानी लेकर आते हैं। चार बजे पंडी जी कक्कन छोड़ाने और सतनरायन बाबा का कथा बाचने का आ जायेंगे। पाँच बजे तक सब निबट जाना चाहिए।
                     ज्योत्सना के ससुर चार भाईयों में सबसे बड़े थे, छोटा भाई हृदयेश से महज पाँच साल बड़ा था। परिवार में उनके त्याग के कारण सभी अदब-लेहाज करते थें। पत्नी परिवार को बाँधने की कला में माहिर थी सो चार भाईयों का संयुक्त परिवार चार गाँवों में मिसाल था। परिवार में बारह पुरुष, बलिष्ठ, गाड़ी-घोड़ा, छकड़ा से दुवार रज-गज। पुरखे जमींदार, सैकड़ों बीघे की खेती, प्रगतिशील किसान होने के कारण अन्न धन से घर भरा था। इस पीढ़ी में सबसे बड़े बेटे हृदयेश ने विश्वविद्यालय में प्राध्यापकी पाकर कुल परम्परा में चार चाँद लगा दिया था। लड़के बाहर बड़े शहरों में पढ़ने निकल चुके थे। लड़कियाँ घर की जीप से पास के शहर पढ़ने जाती थीं। हृदयेश के पिता पढ़े-लिखे प्रगतिशील विचारधारा के व्यक्ति थे इसलिए उच्च शिक्षित बेटे के लिए बहू भी उसी के टक्कर की खोज निकाला था, एक पैसा दहेज नहीं लिया, पक्के बनिया थे, लड़की कॉलेज में लेक्चरर थी,अच्छा कमाती थी। दहेज न लेकर मुफ्त में वाह-वाही लूटकर प्रगतिशीलता पर मुहर पक्की कर गए।
मन में ‘‘चमइया’’ की पूजा को लेकर सशंकित थे, पत्नी को सख्त हिदायत दिया था जब तक बहू पुरानी नहीं हो जाती भेद नहीं खुलना चाहिए। चमइया की पुजइया में विशेष सतर्कता घर भर की औरतें बरत रही थीं। छोटी सास ज्योत्सना को मन्दिर के पिछवाड़े लेकर गयीं, हृदयेश ने गठजोड़ का गमछा उसके कन्धे पर रख दिया। चाची सास ने एक टीले पर बैठाकर धीरे से हाथ जोड़ कर ज्योत्सना से विनय के स्वर में कहा- ‘‘दुलहिन ये बड़ी कठिन पुजइया है, न करने पर चमइया डागर बजाते हुए गर्भ के समय आयेंगी और सोए में कोख काछ कर चली जायेंगी। ज्यादा कुपित हुई तो माँग भी धो सकती हैं। ये जो घर में तीन निपुती राड़ देख रही हो न बहू !...रोते हुए,..चमइया की पुजइया ठीक से न करने का परिणाम है। ज्योत्सना ने चाची सास का हाथ थाम लिए- ‘‘चाची जी आप ऐसे क्यों कह रही हैं? जो कुल परम्परा है उसे मानना मेरा धर्म है। आप पूजा की विधि बताइये। ऐसी कौन कठिन पूजा है जो मैं नहीं कर सकती। हँसते हुए गर्व से कहा- ‘‘बताइये-बताइये... मैं गोल्ड मेडलिस्ट हूँ। चाची सास ने लम्बी साँस छोड़कर मुस्कुराते हुए हाथ थामकर खड़ा किया। मन्दिर के पीछे का चोर दरवाजा खोलकर ज्योत्सना को आदेश दिया, दुलहिन ‘‘चमईया’’ की पूजा निर्वस्त्र होकर पति-पत्नी प्रथम मिलन के पहले करते हैं, बारी-बारी सोलहों भोग थाल का परसाद चढ़ाकर पिंडी को पीले सेन्दूर से पाँच बार टीककर लोटे में पोखरे का पानी होगा,उसमें धार घोलकर पिंड़ी पर गिरा देना ,अगरबत्ती बार कर दिया जलाकर अढ़हूल का पाँच फूल चढ़ाकर कहना- ‘‘हे चमइया’’ हमने अपना सबकुछ उतारकर आपको दे दिया आप भोग लगाए तो हम पहने। और थोड़ी देर आँख मूंदकर हाथ जोड़कर खड़ी रहना फिर एक-एक थाल में तुम दोनों के लिए कोरे कपड़े रखे हैं, उठाकर पहन लेना और दरवाजा खोलकर बाहर आ जाना। ज्योत्सना को काठ मार गया। वह चीख पड़ी ‘‘आप पागल तो नहीं हो गयी हैं? नंगे ऽ ऽ ऽ, नंगे इनके सामने मैं सीधे जाकर खड़ी हो जाऊँ। हद है मूर्खता की, मुझसे ये नहीं होगा। छोटी सास भागते हुए ज्योत्सना के सास के पास पहुँची। जीजी नहीं मान रही। सास चिंतित हो उठी, डर पहले से था। बहू के पास आयी, ज्योत्सना सुबक-सुबक कर रो रही थी। सास ने पेट पकड़ लिए, बेटी नहीं किया तो इ चमइया कुल नाश देगी। हमार बहिनी इ विनती है तोहसे, आँचल फैलाकर रोते हुए बहू से अनुनय करने लगीं । ज्योत्सना पिघल गयी- नहीं अम्मा जी ये क्या कर रही हैं। हम आपके बच्चे हैं, आप पाँव छूकर पाप मत चढ़ाइये। सास का यत्न मारक था। रोते-धोते ज्योत्सना तैयार हो गयी। एक-एक कर सारे कपड़े उतार कमरे में दाखिल हुई, कमरा चूने की नई-नई पुताई से चमक रहा था। बीच में बड़ी सी मिट्टी की पिंडी बनी थी। कच्चे फर्श को गोबर से लीप-पोत कर चिकना किया गया था। चारों तरफ सोलह थाल करीने से रखे हुए था। जब तिवारियों के घर में बेटे का ब्याह होता था कमरा ऐसे ही चमकता था। बाकी दिनों में गाँव के मनचले आशिकों के आशिकी का अड्डा रहता। अब तो बाकायदा आस-पास के गाँव के मजनू -लैला, इतवार को चढ़ावा चढ़ाने लगे थे।
सास ने खट से दरवाजे की कुण्डी चढ़ाई। ज्योत्सना सहम गई, धम्म से घुटनों में मुँह छिपाकर बैठ गयी। चाची सास ने जूड़ा खोल दिया था, कोई बन्धन लेकर जाना वर्जित था। आगे के दरवाजे से हृदयेश अन्दर दाखिल हुआ। ज्योत्सना घुटनों में मुँह छिपाये दीवार के सहारे बैठी थी। लम्बे घने बाल शरीर पर आवरण का काम कर रहे थे। हृदयेश ने हाथ पकड़कर उठाने का प्रयास किया, जल्दी करो ज्योत्सना लेट हो रहा है। जितनी जल्दी करोगी इस यातना से उतनी जल्दी मुक्ति मिलेगी। ज्योत्सना पैरों से लिपट गयी। ये किस पाप की सजा है हृदयेश? वह रोये जा रही थी। इतने प्यारे रिश्ते की शुरूआत इस मानसिक यातना से क्यों ? हृदयेश बैठ गया, उसकी आँखों से भी आँसू बह निकले थे। कोई फायदा इस तर्क-वितर्क का नहीं। मैं तुम्हे रात में सब बताता हूँ। प्लीज अभी इसे खत्म करो। मैं आँखें बन्द करता हूँ। हृदयेश आँखें  बन्द कर वहीं दीवार की तरफ खड़ा हो गया, ज्योत्सना ने हिम्मत करके सभी निर्देश चाची सास के पूरा किया। अन्त में पेटीकोट गले तक बाँध कर पति से कहा अब आप माथा टेके मैं आँख बन्द करती हूँ। हृदयेश में गमछा उतार कर माथा टेका और फिर दोनों ने नए कपड़े पहनकर दरवाजा खोला। इस पूरी घटना से ज्योत्सना इतनी विचलित हो चुकी थी चलना दूभर था। छोटी चाची सास ने हाथ में कसकर पकड़ लिया। कच्चे रास्ते की जलती तपिश ने अब उसके अन्तस तक को झुलसाना शुरू कर दिया था। परम्पराओं के नाम पर दिये जाने वाले मानसिक यातना का यह सबसे बड़ा उदाहरण था ज्योत्सना के सामने, जिसने नव जीवन में प्रवेश से पूर्व ही एक अजीब घुटन भर दी थी। घर पहुँचते पहुँचते साढ़े चार बज चुके थे। दुवार पर मर्दों की चौपाल लगी थी। लकड़ी की हत्थ वाली कुर्सी पर पैर रखकर पंडी जी बैठे भागवत कथा का सार सुना रहे थे। बीच-बीच में घड़ी देख लेते और बेवा औरतों की ओर देखकर बड़बड़ाते- ‘‘इ मेहरारून का झमेला, कुच्छौ नहीं समझता, विलम्ब हो गया तो मुँह पिटाएंगी अपना।’’ नाउन दौरी कपार पर लिए हाली-हाली भागी आ रही थी। पीछे-पीछे बड़की तिवराईन (ज्योत्सना की सास) हाफी-दाफी आती दिखीं तो पंडी जी कुर्सी पर से कूद कर खड़े हो गये- ‘‘का रे ऽ ऽ ऽ नउनियाँ तोहूं के सिखवे पड़ी, ....टेम निकरे जात है और तोर चकल्लस अबही ले चलत बा।

नाउन- अरे बाबा ऽऽऽ अरे बाबा ऽऽऽ बोलती हुई बरामदे की सीढ़ियां चढ़ती आंगन की ओर भागी। पंडित जी पीछे पीछे ....आंगन में चौक चन्दन पहले से पूरकर, कलशा और गणेश स्थापित देख पंडित जी मुस्कुराते, खैनी पीटते हुए- बोले ,वाह शेर मैदान मार लिए। चलो अब जल्दी निपट जायेगा। पंडि जी अपने आसन पर जम गये। उनके मुँह से केवल ऊँऽऽऽ का उच्चारण स्पष्ट सुनाई देता। बाकी मंत्र गले में घनघना कर रह जाता। तिवराइन को आवाज लगाया- वर-कन्या को बुलाइये। तभी आंगन में हृदयेश और पीछे लड़खड़ाते हुए ज्योत्सना चाची सास के साथ दाखिल हुयी औरतों ने ज्योत्सना को पकड़ कर चौक पर बिठाया। पंडी जी ने दोनों के कक्कन खोलकर सास को दिया और बँसवार में फेंकवाने का सख्त निर्देश दिया और कथा बाचने लगे। हर अध्याय के आरम्भ में केवल कलावती कन्या सुनाई देता बाकी अऽऽऽ हूँऽऽऽ हंऽऽऽ की ध्वनि के साथ लुप्त हो जाता। नाउन को उनके संस्कृत ज्ञान पर पूरा संदेह था ,छेड़ते हुए बोली- ए बाबा! तनी अरथ सहित बांचा कुछ बुझाते नइखे। पंडी जी पिनक गये, बगल में पड़ी अपनी लाठी जमीन पर पीटते हुए चिल्लाये- ससुरी बिघन डालती है, जानती है, कुबेला हो रहा है, साली नीच जात, नीच बुद्धि। नाउन भी कम नहीं थी तमतमा उठी- ए बाबा जात पर त जइबे न करी नाही त अब्बे कुलआई माई उबेर देइला। मामला बिगड़ते देख हृदयेश ने हस्तक्षेप किया। पंडी जी खतम करिये पाँच मिनट बचा है। पंडी जी का अऽऽऽ हूँऽऽऽ हंऽऽऽ तेज हुआ। गौरी की सिन्दूर पूजा के बाद कथा सम्पन्न हुई। बड़की तिवराइन ने चैन की सास लेकर पूरब में सुरुज नरायन को आरती दिखा पूजा सम्पन्न होने की घोषणा की।
             रात ग्यारह बजे हृदयेश कमरे में आया। ज्योत्सना के मन में प्रथम मिलन का रोमांच समाप्त हो चुका था। ननदों और चाची सास ने कमरे को सुगन्धित इत्र से इतना गमका दिया था कि उसे उबन हो रही थी। भारी बनारसी साड़ी और गहने उसे चुभ रहे थे। एक तरफ छोटे से मेज पर दो गिलास दूध, सूखे मेवे और मिठाईयां करीने से सजाकर रखे थे। हृदयेश ने दरवाजे की कुंडी बन्द कर दी। ज्योत्सना खिड़की के पास आकाश में उगे पूर्णिमा के चाँद को एकटक निहारते हुए सोच रही थी, पूर्णता भी कितना बड़ा भ्रम है। चाँद का एक दाग के साथ उगना और घटते बढ़ते लुप्त हो जाना। सही है ‘‘सब दिन रहत न एक समाना’’ का उदाहरण इस चाँद से बड़ा और क्या होगा। वह नाहक मुस्कुरा उठी हृदयेश ने उसे मुस्कुराता देख बाहों में भीच लिया। ज्योत्सना की तन्द्रा टूटी। एकदम से उसका मन कसैला हो गया। खुद को उसके मजबूत गिरफ्त से छुड़ाने की कोशिश की। हृदयेश ने उसके गालों पर चुम्बन देते हुए कहा- ‘‘अब इतनी क्या शर्म? सब तो ओपेन हो चुका है।’’ ज्योत्सना चीख पड़ी- बस करिये हृदयेश मुझे आपके साथ नार्मल होने में थोड़ा समय लगेगा। हृदयेश नर्वस हो गया। ‘‘अब क्या हुआ?’’ सब नार्मल तो है न? ज्योत्सना छिटकर दूर खड़ी हो गयी- ‘‘नहीं! सब एबनार्मल है, मुझे घुटन हो रही है, शायद मैं बेहोश हो जाऊंगी। हृदयेश ने दरवाजा खोल दिया, हाथ पकड़कर कहा- ‘‘चलो ऊपर छत पर, शायद खुले में कुछ राहत मिले, गरमी बहुत है, हाँ ये सब उतार कर कुछ हल्का पहन लो। इससे भी घुटन हो रही होगी।’’ ज्योत्सना ने पति से कहा- ‘‘आप चलिए! मैं आती हूँ।’’
                ब्रह्मदेव तिवारी के बीघे भर फैले हुए पुस्तैनी मकान में चार भाईयों का परिवार रहता था। दो बीच के भाई क्रमशः एयरफोर्स में कार्यरत थे। छोटा यहीं प्राथमिक में मास्टर था। भाईयों की शादी भी बड़के तिवारी जी ने खूब ठोक-बजाकर कर दिया था। वहां भी दहेज के फेरे में न पड़कर घराना देखकर भाईयों को ब्याहा था। तीन भाईयों की शादी आस-पास के दबंग ब्राह्मणों के घर में किया। इसका परिणाम यह निकला कि बड़े से बड़ा अधिकारी, नेता दरवाजे पर सलामी लगाकर ही आगे बढ़ता। दूसरे नम्बर के भाई के ससुर विधायक, पिता के तर्ज पर दोनों साले भी राजनीति में कूदे और पार्टी बदल-बदल कर सत्ता में काबिज रहते। बस एक फोन मिलाया बड़के तिवारी ने कि थाना पुलिस हाजिर। तीसरे के ससुर इण्टर कॉलेज में प्रिंसिपल, नकल का सेंटर बना अकूत धन कमाया। रिटायर होने पर खुद ही स्कूल, कॉलेज खोल लिया। आज के दिन वे इलाके के मदन मोहन मालवीय थे। चौथा पढ़ने में होनहार था, इलाहाबाद तैयारी को भेजा लेकिन वहां जाकर वामपंथ और साहित्य में रम गया। बड़के तिवारी को पांच साल बाद भाई के रंग-ढंग का पता तब चला, जब अखबार के साहित्यक पृष्ठ पर उनकी क्रांतिकारी कविता छपी मिली। पढ़ते हुए कान खड़े हो गये- लिखते हैं-
मुझे तोड़नी है,
बनी बनाई पुरातन की वज्र वह दीवार
जो तुम्हारे और मेरे बीच
खड़ी की गयी थी
उस दिन जब तुम गाँव के दक्खिन में
और मैं पूरब में जन्म ले रहा था
जब तुम्हें मुँह में
सभ्यता की काली स्याही से
अक्षर -अक्षर कालिमा के नियम
दूध में घोलकर
पिलाया जा रहा था
मुझे सभ्यता के विशाल आंगन में
चौक, चन्दन, पूर
सोने के कलश पर
सूरज की अरुणिमा का
चन्दन लगाकर
चाँदी की कटोरी में
चाँदी के सिक्के से
अन्न प्राशन के नाम पर
चटाया जा रहा था
विभेद......
प्रिये!
मुझे गिरानी है
पुरातन की वज्र दीवार,
तुम्हारे लिए,
जोड़कर अधूरे सम्बन्धों की डोर
तुम्हारे दक्खिन से
अपने पूरब तक।


                                                            रेखाचित्र   -   अनु्प्रिया


साँस -परान हलक में अटक गया।सरपट पत्नी से सतुआ-पिसान लिए पहली ट्रेन से इलाहाबाद भागे। हाथ -पैर जोड़कर माँ की अस्वस्थता का हवाला देकर घर लाए। अनुभवी ब्राह्मण मानसिकता ताड़कर बाण छोड़ता है। माँ को समझा-बुझाकर तैयार किया। व्याह का दबाव बनाने लगे। भाई दो बार घर छोड़कर भागे। तब अन्तिम ब्रह्मास्त्र छोड़ा बड़के तिवारी ने। जोरदार हर्ट अटैक का सन्देश भाई के यहाँ भेज अस्पताल में भर्ती हो गये। पिता तुल्य भाई के हर्ट अटैक की खबर सुन छोटके तिवारी गिरते-पड़ते घर भागे। डाक्टर रिश्तेदार थे, एकांत में ले जाकर समझाया ..तनाव इनके लिए जानलेवा हो सकता है। बेचारे छोटके तिवारी फंस गये और रोते-धोते ब्याह के बंधन में बंध गये।पहले क्रांतिकारी प्रेम का भूत पूरी तरह माथे पर चढ़ा हुआ जानकर बड़के तिवारी ने इस बार न घर देखा, न घराना। इलाके की सबसे खूबसूरत ब्राह्मण कन्या घर लायी गयी। अल्हड़ गाँव की लड़की, किसी तरह नकल से बी.ए. पास किया था। पिता को रिश्ता घर बैठे मिला तो इलाके भर मूसरन डोल बजा-बजा कर ऐलान किया, हमारी बेटी तिवारीपुर के तिवारियों में जा रही है। स्त्री के देह का सौन्दर्य पुरुष की सबसे बड़ी कमजोरी है, पत्नी का सौन्दर्य सारे क्रांति पर भारी पड़ा और छोटके तिवारी का वामपंथ छू मंतर हो गया।
                          आधी रात को गुलाबी शिफॉन की खूबसूरत नाइटी में ज्योत्सना छत पर पहुँची, हृदयेश ने आकाश के चांद को आंख मारते हुए कहा- ‘‘तुम्हारी ज्योत्सना मेरे पास है।’’ दोनों कुछ क्षण एक दूसरे को एकटक निहारते रहे। गोरा रंग, गोल चेहरे पर काली बड़ी-बड़ी आँखें। उसे याद आया जब आजी उसे पहली बार देख कर आयी थी, कहते नहीं अघाती थीं- ‘‘बाबू चनरमा अइसन गोल मुँह पर आम के फाक नियर बड़-बड़ आँख अउर तोता के ठोर नियर नाक, टह-टह लाल ओठ और पीठ पर धौल जमाते हुए कहती अउरी गावे ले ए बाबू एकदम कोइलिया नियर।’’ ज्योत्सना ने ननद के आग्रह पर मीरा का भजन सुनाया- ‘‘पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।’’
हृदयेश ने उसके होठों को चूमने का प्रयास किया तो ज्योत्सना छिटककर भागने लगी। बड़े से सुनसान छत पर मियाँ-बीबी एक दूसरे के साथ भागा-भागी खेलने लगे। थककर हँसते-हँसते लोटपोट हुए जा रहे थे- ‘‘बाप रे धाविका पत्नी पहली रात में इतना दौड़ायेगी पता नहीं था।’’ ज्योत्सना ने कहा- ‘‘हृदयेश! एक बात पूंछू?’’ हाँ क्यों नहीं।....
आप भौतिकी के ही प्राध्यापक हैं न?
आफकोर्स, व्हाई नाट।
तुम्हें आशंका क्यों?
‘‘कमाल करते हैं, इतनी मूर्खतापूर्ण परम्परा का निर्वहन पूरे मनोयोग से करते देख।’’ 
ज्योत्सना ने व्यंग्य से मुस्कुराते हुए कहा- बात ठस्स से दिमाग में धस गयी। बना बनाया रोमैंटिक मूड उखड़ गया।

  ‘‘विवशता है।’’ हृदयेश का चेहरा क्रोध से खींच गया। जिसे छिपाने की उसकी कोशिश नाकाम रही।
दूसरा सवाल उससे भी घातक था।
‘‘सुना है आप डी.यू. में आइसा के पदाधिकारी थे और अभी प्रलेस के पदाधिकारी हैं। मैंने आपके कई वैचारिक लेख हंस जैसी बड़ी पत्रिकाओं में पढ़े हैं। आश्चर्य होता है समाज की रुढ़ परम्पराओं, जातिय व्यस्था का खण्डन करने वाला युवक ऐसी यातनापूर्ण कुल परम्परा का न केवल पालन करता है बल्कि पत्नी को भी मानने के लिए विवश करता है।’’
ज्योत्सना पूरे आवेग में थी। ‘‘जिन बुराईयों का आपको पुरजोर खण्डन करना चाहिए उसके प्रति यह अन्ध आस्था क्यों?’’ 
हृदयेश बगलें झांकने लगा, कोई मजबूत उत्तर न दे सका तो कुतर्क करने लगा।
देखों! ...ज्योत्सना। कुछ बातें मानसिक तौर पर इस कदर हमसे जुड़ी रहती हैं कि हम उसे मानने के लिए विवश हो जाते हैं। इस पूजा से मेरी माँ मनोवैज्ञानिक तौर पर जुड़ी है और एक अजीब संयोग भी है कि जिन लोगों ने इसे मानने से इनकार किया उन सब का सफाया हो गया। अब न मानने का कोई विकल्प नहीं बचता मेरे पास।
ज्योत्सना को हँसी आ गयी- ‘‘यह भौतिकी का प्राध्यापक कह रहा है, आई डोंट बिलिव, ह्वाट अ-नॉनसेंस जोक।’’

हृदयेश चिढ़ गया- ‘‘तुम्हें इतनी उलझन क्यों हो रही है, कर्मकाण्डी आचार्य चन्द्रसेन शास्त्री की बेटी कुल परम्पराओं के निर्वहन पर सवाल खड़े कर रही है।’’ कंधे उचका कर कहा- ‘‘घोर आश्चर्य तो मुझे हो रहा है।’’
हृदयेश हाथ से पकड़ी हुई रेलिंग की ओर पीठकर ज्योत्सना की तरफ खड़ा अंधेरे शून्य में निहार रहा था।
पति की कोई प्रतिक्रिया न पाकर ज्योत्सना ने पास जाकर कहा- ‘‘वैदिक संस्कृति में पितृसत्ता की साजिशें विषय पर शोध किया है मैंने।’’ हृदयेश झट से बोला- ‘‘पितृसत्ता की साजिशें? तुम्हें शीर्षक किसने दिया?’’
जब तर्क मजबूत होते हैं आपके तो रास्ते रोकने का साहस किसी में नहीं होता। 
ज्योत्सना के होठों पर दृढ़ता की मधुर मुस्कान थी। 
हृदयेश मुस्कुरा उठा- ‘‘तो तुम्हें वैदिक नियम स्त्रियों के पक्ष में घोर षड़यंत्र लगते हैं?’’
‘‘बिल्कुल’’- ज्योत्सना ने दृढ़ता से कहा। 
फिर तो तुम नास्तिक हो। ...हृदयेश में व्यंग्यपूर्ण मुस्कान में लपेटकर तीर छोड़ा। मना क्यों नहीं कर दिया माँ को पूजा से। कहां थी तुम्हारी वैचारिकी डाक्टर ज्योत्सना उस वक्त?
ज्योत्सना आहत हुई, पुरुष स्त्री के आधुनिकता बोध या वैचारिक होने को किस रूप में ग्रहण करता है वह अच्छी तरह से जानती थी। हृदयेश अपनी गलती छिपाने के लिए उसे घेर रहा था। उसे समझते देर न लगी कि अब उसका जूता उसी के सर है।

‘‘डाक्टर साहब !स्त्री का आस्तिक या नास्तिक होना यहाँ प्रासंगिक नहीं है, प्रसंग एक विकृत परम्परा को जबरन ढोने का है।’’ 
ज्योत्सना ने पूरी ताकत झोककर कहा। पति के आँखों में आक्रोश चांदनी रात के धवल प्रकाश में स्पष्ट दिखाई दे रहा था। एक पराजित पुरुष कितना आक्रामक हो सकता है उसके आँखों की लालिमा में साफ-साफ देखा जा सकता था।‘‘
ज्योत्सना तुम्हें नहीं लगता कि तुम हमारे मधुर रिश्ते की नींव कटुता की कटीली पृष्ठभूमि पर रख रही हो। ह्रदयेश की आवाज में कठोरता थी।
ज्योत्सना ने खुद को संयत करते हुए कहा- ‘‘आप नहीं समझेंगे हृदयेश!’’ हमारी संस्कृति में पुरुष का पौरुष कठोरता के प्रदर्शन में निहित है लेकिन स्त्री जिसे प्राकृतिक तौर पर आपने कोमलांगी घोषित कर रखा है । सब कुछ सुकोमल चाहती है वह चाहती है पुरुष उसे फूल की नाजुक पंखुड़ियों से स्पर्श करे और आप जैसे पुरुषों ने स्त्री को सभ्यता के पिंजरे में कैद खूबसूरत परिन्दा ही माना। पुरुष शिकारी की दृष्टि से देखता है नारी देह को और उसके लिए केवल देह है। व्यक्ति मानने का साहस अभी तक हमारे समाज में मर्दो में नहीं है।’’

उसके चेहरे पर घृणा के भाव स्पष्ट उभर आये थे ।
‘‘बाप रे बाप!’’ तो आप स्त्रीवादी हैं? हृदयेश ने भयभीत होने का अभिनय किया।‘‘
नहीं केवल मनुष्य। जिसे प्रकृति ने वाचिक तौर पर प्रतिरोध करने की क्षमता से नवाजा है।’’ ज्योसना ने घृणा से दाँत पीसते हुए कहा।

पूरब में शुक्र ग्रह उग आया था। सप्त ऋषि और शुकउवा काे देखकर हृदयेश ने झल्लाते हुए कहा- ‘‘भोर हो गयी, जीवन की सबसे मधुर रात इतनी कड़वी होगी मुझे पता नहीं था।’’

‘‘पवित्र रिश्ते की पृष्ठभूमि भयंकर मानसिक यातना के साथ आरम्भ हो तो उसका हश्र यही होता है हृदयेश!’’ ज्योत्सना रुआसी हो गयी ‘‘मुझे थोड़ा वक्त दें आपके साथ सहज होने में मुझे थोड़ा वक्त लगेगा।’’ कहते-कहते वह रो पड़ी।हृदयेश से ज्योत्सना का रोना नहीं देखा गया। स्त्री के आंसू में बड़ी ताकत होती है। बड़े से बड़े चट्टान पुरुष को पिघलाने की क्षमता से लैस। हृदयेश ज्योत्सना को सीने से लगाकर पुचकारने लगा।
‘‘अरे यार! मैं तो गुस्से में यह सब कह गया। रही बात वक्त की तो जानेमन, अब पूरा जीवन तुम्हारा है जब तक चाहो इंतजार करा लो।’’ दोनों की आंखें मिली। सजल स्नेहिल कंपकपाते होठों से हृदयेश ने ज्योत्सना के होठों को चूम लिया। ज्योत्सना ने शर्माकर पति के सीने में चेहरा छिपा लिया।
हृदयेश ने कहा- ‘‘क्या हुआ? आखिर मैं तुम्हारा पति हूं वैसे भी हमारे बीच कोई पर्दा नहीं फिर उस क्षण को लेकर इतना विचलन ठीक नहीं ज्योत्सना। ज्योत्सना ने उसी मधुरता से उत्तर दिया- ‘‘जानती हूं लेकिन जो पर्दा अपनी स्वीकृति के साथ पूरी सजगता से उठना चाहिए था वह मेरे जीवन में भयंकर दुर्घटना बनकर आया हृदयेश! मैं घोर मानसिक पीड़ा से गुजर रही हूं। थोड़ा वक्त दें ,..पति पत्नी दोनों का वाक्युद्ध पूरी रात चलता रहा, भोर की लालिमा पूरब में छिटकने लगी। सास- बहू को जगाने कमरे में पहुंची। कमरे में दोनों को न पाकर शंका हुई कि कहीं गर्मी के कारण दोनों छत पर न सो रहे हों। जल्दी जल्दी सीढ़ियां चढ़ती हुई छत पर पहुँची। माँ को देख हृदयेश ने पत्नी को झट से बाहों से अलग किया। ज्योत्सना तुरन्त नीचे भागी। माँ ने बहू को नाइटी में देख बेटे को आँखों ही आँखों में बहुत कुछ सुनाया। हृदयेश ने सर झुकाकर आगे ऐसा न करने का आश्वासन दिया।

                  ब्याह के पन्द्रह दिन बीत गये। बड़ी मान मनउल्ल के बाद मुश्किल से दो बार पति पत्नी एक हुए थे। ज्योत्सना पति की सहजता सरलता और संयम पर मुग्ध हुई जा रही थी। गाड़ी पटरी पर लौट रही थी। दोनों बड़े चाचा ससुर अपने परिवार को लेकर नौकरी पर लौट चुके थे। घर में तीन बेवा वृद्ध औरतें छोटे चाचा सुसर-सास, सास ससुर के अतिरिक्त छोटी ननद मंजू और साल भर का चचेरा देवर बिट्टू रह गये थे। बड़ी ननद को हफ्ते भर बाद ही ससुराल वाले विदा कराकर ले गये थे। हृदयेश दो बहन एक भाई में सबसे बड़ा था। चाचा का हमजोली होने के कारण उनसे वह मित्रवत व्यवहार रखता था। वह उनसे इतना प्रभावित था कि उनके कहने पर कुएं में कूद सकता था। अल्हड़ गाँव की लड़की चाची भी उसके साथ देवरों सा हास-परिहास करती थीं। बड़की तिवराइन आँखों की आँखों में देवरानी को समय-समय पर सीमाओं का ज्ञान कराती रहती। आवश्यकता पड़ने पर जबान भी चलाती।

भरे पूरे परिवार में कमकरिन बर्तन चौका के लिए, महराज रसोई बनाने के लिए, तथा दरवाजे पर तीन नौकर झाड़ू बटोरू के लिए, गोरु चउवा की देखभाल के लिए और इसके अतिरिक्त चुनमुन यादव बड़के तिवारी के व्यक्तिगत ड्राइवर कम बॉडीगार्ड अधिक थे। पिस्टल टांगकर लकदक सफेद शर्ट, पैंट और स्पोर्ट शूज में पूरे माफिया लगते। आगे-आगे मूछों पर ताव दिये सभा पंचायतों में बड़के तिवारी चलते पीछे-पीछे पिस्टल पर हाथ फेरते चुनमुन यादव। दोनों की जोड़ी इलाके में सरनाम थी। ज्योत्सना ने घर में अच्छी पैठ बना ली। तीनों आजी सासों का पैरा दबा देती बाल झाड़ती, सुबह उठ कर पैर छूती। बड़की तिवराइन संस्कारी बहू पाकर धन्य हुई।

  ज्योत्सना छोटी सास से घुल मिल गयी, दोनों घंटों बातें करती, साथ खाती-पीती, बिल्कुल सहेलियों की तरह। धीरे-धीरे आपसी दुःख-सुख भी बांटने लगीं। ज्योत्सना विज्ञान पढ़ना चाहती थी, पिता ने कुल परम्परा के अनुसार जबरन संस्कृत पढ़ने को विवश किया। जिसका गहरा क्षोभ उसके मन में था। वह अपने विद्रोह से पितृ सत्ता को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहती थी। चाची सास की खूबसूरती ने उन्हें घर में इस कदर कैद कर लिया था कि वह बाहर की दुनिया का विकास स्कूल, अस्पताल, डाकखाने से ज्यादा नहीं जानती थी। दबाकर रखने का परिणाम यह हुआ कि वह बात-बेबात अनायास हँसती और किसी को बिना सोचे समझे कुछ कहतीं।
ज्योत्सना पिता को कोसती, वह समाज को। एक दिन ज्योत्सना ने पूछा- ‘‘चाची जी आप चमइया माई की पूजा करते असहज नहीं हुई थीं?’’

काहे की असहजता बहिनी, देहियें न देखेगी छिनरी, कोठरी में घूसकर उसके कपार पर टांग पसारकर खड़ी हो गयी। साया उठा दिया और गाने लगी ....देखो-देखो चमईया हमार सुतूहीss देखो sssssऔर ठठाकर हँसते हँसते लोट-पोट हो गयी। 
और चाचा जी? ज्योत्सना पूछते वक्त फटी आँखों से चाची सास को एकटक देख रही थी, उ तो कोने में खड़े होकर मूत रहे थे। हमने तो कह दिया। देखो जी हम साया नहीं उतारेंगे, खाली साया में आपकी भाभी ने अन्दर आने दिया आप आंख मूने नहीं तो हम समनवे पहिन लेंगे, फिर यह न कहियेगा की बड़ी निर्लज है।’’ फिर? ज्योत्सना अवाक थी। फिर क्या इन्होंने आंख मूंद लिया, मैंने कपड़ा पहिना सामान चढ़ाया और निकल गयी। इ देखो, साल भितरे की देन है।
पलंग पर गोल मटोल बच्चा निश्चिंत सोया था। ज्योत्सना का दिमाग घूम गया। उफ्फ! ये गाँव की औरत भी इतनी समझदार निकली और मैं संसार की सबसे बड़ी मूर्ख जिसे ये सब नहीं सूझा। उसे अपने ऊपर गहरा क्षोभ हुआ ,जी में आया सिर दीवार पर दे मारे।

           मई में शादी हुई और जुलाई में दो माह गाँव रह कर हृदयेश और ज्योत्सना दिल्ली लौट आये। महानगर की जीवन शैली और व्यस्त दिनचर्या में पिछले दिनों का गम जाता रहा। हृदयेश और ज्योत्सना दोनों अभी बच्चा नहीं चाहते थे। सास हर महीने फोन कर कोई नई बात का सवाल दागती और ज्योत्सना टाल जाती। सास को चिन्ता हुई पढ़ी-लिखी आधुनिक खयालों वाली शहरी लड़की ने लगता है पूजा में कोई कमी कर दी है। पति से चिन्ता जाहिर कर रोने लगी। एक अज्ञात भय ने दंपति को घेर लिया। क्वार का महीना, जाड़े ने अपना असर दिखाना शुरु कर दिया था। शाम होते ही बुर्जुग ओढ़ना-बिछावन डाल बिस्तर में दुबक कर बैठ जाते। एक शाम बड़के तिवारी शहर से लौटकर संध्या वंदन कर दुवार पर आराम कुर्सी पर आँख बन्द कर कुछ मंथन करने में लीन थे। बड़की तिवराईन ऐसे समय पर अक्सर पूरे घर की रिपोर्ट देती। ज्यादातर छोटे भाई की ,...छोटके तिवारी पूरे विद्रोही, आज कल खुलेआम मांस मछली खाने लगे थे। तिवारी कुर्सी छोड़कर खड़े हो गये, क्या बात है हृदय की अम्मा, तुम्हारा इतना मौन मुझे अखर जाता है। कोई तो चिन्ता का विषय अवश्य है तुम्हारे मन में बड़की तिवराईन ने पति को सजल आँखों से देखा।
‘‘सुनिये जी छः महीने बीत गया और बहू ने अभी तक खुशखबरी नहीं दी, मेरा जी घबराता है। ना जाने क्या होने वाला है। पति के हथेलियों को पकड़कर आँखों में आंखें डालकर कहा- ‘‘हमको दिल्ली जाना है। बड़के तिवारी ने तुरन्त स्वीकृति दी। ठीक है चलो तुम्हे देश की राजधानी दिखाते हैं, तुम भी क्या याद रखोगी।

हफ्तेभर बाद का टिकट मिला, हृदयेश को फोन से खबर कर दिया गया। ज्योत्सना ने जिंस-कुर्ते, टाउजर, टाप सब आलमारी में छिपा दिया। रात में सोते वक्त हृदयेश से कहा- ‘‘अम्मा-पिताजी कब तक रहेंगे? हृदयेश कोई किताब पढ़ रहा था- सुनकर हँस पड़ा। जानेमन घबड़ा गयी? अभी वो आये नहीं और आपने जाने का हाल पूछ लिया।’’ ज्योत्सना झेप गयी। मेरा मतलब ये नहीं था, अब गाँव की तरह यहाँ तो दस नौकर-चाकर है नहीं, और अम्माजी ठहरी पूरी कर्मकांडी, सब कैसे मैनेज होगा? सोच रही हूँ और एक बात ध्यान रखना, चेतावनी देते हुए कहा- ‘‘अण्डे-आमलेट का फरमान मत देना उनके सामने गलती से भी वरना मेरा छूवा जीते-जी नहीं खायेंगे। ज्योत्सना के चेहरे से चिन्ता साफ झलक रही थी।सास आई, हफ्ते भर रहकर हिदायते देतें, डाक्टर को दिखाते-सुनाते दिल्ली घूमकर चली गयीं। स्टेशन पर रोते हुए बेटे से वचन लिया छुट्टी होते घर चले आना। छुट्टियों में ज्योत्सना मायके जाना चाहती थी लेकिन हृदयेश तैयार नहीं हुआ। कई दिनों तक पति-पत्नी में शीत युद्ध चलता रहा। अन्त में हृदयेश ने समझौता करते हुए कहा- ‘‘अपने पिता से कहो घर आकर ले जायें विदा कराकर।’’ ज्योत्सना मान गयी, कोई चारा नहीं था। दिल्ली से बनारस के लिए ट्रेन रवाना हुई, स्टेशन पर बड़के तिवारी बुलैरो लिए पहले से खड़े थे। बेटे-बहू को देखकर हर्षित हुए, मिलने-मिलाने, हाल-चाल के बाद गाड़ी तिवारीपुर की ओर चल पड़ी। रास्ते भर पिता-पुत्र पूरे गाँव का हाल-चाल, देश-प्रदेश की राजनीति का गाँव पर प्रभाव आदि विषयों पर चर्चा करते रहें। अबकी गर्मी में किन-किन के घर में लगन है और कितना दान-दहेज मिल रहा है पर बड़के तिवारी विशेष रस लेकर बतियाते। ज्योत्सना सर झुकाये दोनों की बातें सुनती और मन ही मन पति को बनारस की सड़कों से गुजरते हुए कोसती, नैहर के रास्ते से गुजर रही थी, हृदयेश ने खबर तक करने को सख्त मना किया था। ‘‘तुम्हारे माँ-बाप का ड्रामा स्टेशन पर ही चालू हो जायेगा, आकर घर से ले जायें समझी। हमारे घर की बहुयें बिना दिन रखे विदा नहीं होती।
                 गाँव का नैसर्गिक वातावरण ज्योत्सना को बचपन से लुभाता रहा है। दुवार पर पूरा खानदान जमा था, गाड़ी रुकते ही छोटी ननद मंजू भागकर जल्दी से गाड़ी खोलकर भाभी के पाँव छूकर सामान निकालने में भाई की मदद करने लगी। बड़की तिवराईन ने भर लोटा धार से बेटे-बहू को ओईछ कर नजर उतारा। बहू को पकड़कर अन्दर ले गयीं। टोले भर की औरतें और लड़कियों का हुजूम आंगन में उमड़ा देख ज्योत्सना सहम गयी। सफर की थकान से शरीर टूटा जा रहा था। चाची सास गले मिलीं और बारी-बारी सभी बड़ी-बुर्जुग महिलाओं के पैर छुलाया। लड़कियों ने भाभी को छेड़ा, ‘‘अकेले आयी भाभी, हम तो सोच रहे थे भतीजे का नेग लेंगे।’’ बड़की तिवराईन का दिल बैठ गया। चाची सास ज्योत्सना को भीड़ से निकालकर कमरे में ले गयीं।
‘‘जाओ नहा-धोकर आराम करो, शाम को बतियाते हैंऔर आंख दबाकर खिलखिला उठीं। ज्योत्सना को छोटी चाची की खिलखिलाहट बड़ी प्यारी लगती थी। औरतों का खिलखिलाकर हँसना कितना दुभर है, जानती थी। याद आया मायके में माँ कभी खुलकर हँसने नहीं देती थी। बड़े भाई तो कई बार हाथ तक बचपन में चला देते थे। वह हँसना चाहती थी कई बार छोटी चाची की तरह खिलखिलाकर, स्वच्छन्द हँसी।

महीना भर बीत गया, मई-जून में विदाई की कोई तिथि नहीं मिली, सास दुखी मन से हृदयेश से कह गयीं- ‘‘स्टेशन पर माँ-बाप से मिला देते तो बहू को दुख न होता।’’ हृदयेश को भी दुख हुआ, पिता-भाई तो कई-बार दिल्ली आकर मिल गये थे, लेकिन माँ से मिले ज्योत्सना को पूरा एक साल हो गया था। वह घंटों रोती रही। एक दिन ज्योत्सना बड़की आजी का पैर दबा रही थी, आजी खुश हो गयीं, खूब दूध-पूत का आशीष दे अपनी कोठरी में ले गयीं। काठ के पुराने सन्दूक को खोलकर एक छोटा सा नक्कासीदार बक्सा निकाला, बक्सा गहनों से भरा था। दो मोटे-मोटे पछुऐ उसके हाथ में रख पहना दिया, तुम्हारी कलाईयां वैसी ही गोल-मटोल है बहू, जैसे जवानी में मेरी थी। आँखों से झर-झर आंखू बहने लगा। ज्योत्सना उनके कष्ट को समझ सकती थी। भरे यौवन में वैध्वय कितना बड़ा अभिशाप है उसने बनारस के विधवा आश्रमों, घाटों आदि पर भटकती, भीख मांगती विधवाओं के जीवन में बहुत नजदीक से देखा था शोध कार्य के दौरान।

आजी मौन थीं.... उसने हिम्मत करके पूछा..ये ‘चमइया’ और इसकी अन्धभक्ति घर में क्यों होती है?  आजी ने संयत होकर कहा ..बताती हूँ तुम्हें, और काठ के सन्दूक से सास की जनानी वंशावली निकालकर बैठ गयीं- ‘‘हमारे पुरखों में एक थे जटाशंकर बाबा, बड़े विद्वान, बलिष्ठ और सुन्दर। गाँव की जमींदारी राजा साहब से शास्त्रार्थ में जीतने के कारण इनाम में मिला था। घोड़े से गाँव-गाँव घूमते आसासियों का दुख-दर्द पूछते, सूखा पड़ने पर किसानों का लगान राजा को अपने खजाने से देते। न्यायप्रिय और दयालु थे। बाबा के जीवन में सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन भोरे राजा का बुलावा आया, घोड़े से चल दिये, सूनसान रास्ते में एक जगह घोड़ा अड़ गया, बड़ी कोशिश करते रहे, लेकिन घोड़ा टस से मस न होता। बेचारे सिर पर हाथ रख पास के बगीचे में जा बैठे ,दिन चढ़ आया था, भूख-प्यास से बेहाल, बाग में कुँआ तो था, लेकिन लोटा डोर नहीं। बाबा ने सोचा अब जीवन समाप्त। बेचारे ईश्वर को याद कर रोने लगे, तभी एक बूढ़ी औरत अपनी जवान बेटी के साथ लोटा-डोर लिए आई,
बाबा गिरते-पड़ते पहुँचे। बूढ़ी औरत ने कहा- आप बड़ मनई बुझाते हैं, हमारे हाथ का छुआ पियेंगे। बाबा ने हाथ जोड़ विनय किया, जीवन मिले तो सोचेंगे। बुढ़िया ने बेटी को इशारा किया। लड़की भर लोटा पानी लिए आई और मुस्कुराते हुए बाबा को पिलाने लगी। लड़की दिव्य सुन्दरी थी, बाबा मुग्ध हो गये। अक्सर बाग से गुजरने लगे। लड़की और उनका मेल-जोल बढ़ा तो बुढ़िया की झोपड़ी तक पहुँचे। बुढ़िया को कुजात छांट जात वालों ने गाँव निकाला दे रखा था, विधवा औरत जवान बेटी के साथ विराने में झोपड़ी डाल रहती थी। कहते हैं- ‘‘इतनी बड़ी डाईन थी कि उड़ती चिड़िया का पंख बांध देती थी।’’ धीरे-धीरे मड़ई अटारी में बदल गयी। गर्भ रहता तो बुढ़िया मार कर गिरा देती। लड़की महीने शोक मनाती फिर पुराने ढर्रे पर लौट आती। आखिरी गर्भ माँ से छिपा ले गई। जब-तक पेट उभरा पाँच माह हो चुके थे। माँ ने जहर खा लिया। लड़की बाबा के दरवाजे पर आकर बैठ गयी। बाबा का तीनों त्रिलोक घूम गया। समझा-बुझा कर वापस किया, अगले पूरे दिन साथ रहे, सोचते रहे कैसे मुक्ति मिले? आखिरकार अपने विश्वासपात्र नौकर को आदेश दिया, हाथ-पैर बाँध के पोखरे में बोर दो और ब्रह्महत्या से मुक्ति के लिए चार धाम को निकल गये।

इधर बाबा के चार भाईयों में तीन की पत्नियों को गर्भ था। आधी रात को डग्गर बजाते सपने में आयी और पेट काछ के चली गयी। सबेरे तक घर-आँगन खूने-खून। क्या बतायें बिटिया पुरनिया (आजी सास) कहती थी, लगा खूँट नसा गया। साल भर बाद बाबा लौटे तो दरवाजे पर सियापा छा गया था। देवी प्रकोप से बारी-बारी तीन जवान बेवा औरते घर में दहाड़ रही थी। पत्नी बेटी को छाती से साटे पास आने से डरती। बाबा ने देस-देस के पण्डितों को दिखाया। कोई फायदा नहीं। पण्डा, मौलवी, पीर, मजार सब एक किया लेकिन जस का तस सब बना रहा। इसी बीच किसी ने एक ओझा का पता दिया ओझा बुलाया गया। गजब हो गया बहिनी- ‘‘ओझा बकने लगा, गर्भ के साथ चमइनिया डोला रही है।’’ बाबा ने उपाय पूछा- ‘‘ओझा बोला- वंश-दर-वंश पुजइया लेगी महराज!.,चौरी मांग रही हैं। हिस्सा मांग रही है।’’ कोई चारा नहीं था- बाबा मान गये- उसकी कोठी ओझा को दे बारी वाले पोखरे के पास चौरी बन्हा दिया। पत्नी गर्भ से हुई, नौ माह पर जुड़वा बेटे हुए। ओझा आ धमका, पूजन दें महराज! नहीं तो छोड़ेगी नहीं, जनम-विवाह सब पर। पत्नी हाथ जोड़ विनती करने लगी, देंगे क्या मांगती है? ओझा ने उसकी मांग सबको सुनाई, पैदाइस पर उसका मन्दिर, विवाह पर वर-बहू नंगे जेवनार, गहना, कपड़ा चढ़ा कर पाँचवें दिन साथ रहें, तभी वंश चलेगा।







  मन्दिर के नाम पर बाबा ने एक कोठरी बनवा दी। पत्नी ने चार बेटों को जनमा लेकिन आगे बेटों ने चमइया को पूजा देने से मना कर दिया। देखते ही देखते तीन बेटे मर गये। छोटा बेटा बारह का था जल्दी-जल्दी ब्याह कर पुजइया दिलाया। वंश इसी से आगे बढ़ा। इनके भी चार बेटे हुए, ये हमारे पति थे। बड़के भाई माँ की बात मानकर सब करते गये। हमारे पति पढ़े-लिखे होने के कारण नहीं माने। नतीजा देख रही हो। ‘चमइया’ बड़ी जगता हैं। कह कर फफक-फफक कर रोने लगीं। ज्योत्सना पूरी कहानी ध्यान से सुन रही थी। अजीब संयोग जुड़ा था वंशावली की कहानी से। एक तरफ छोटी चाची सास तो दूसरी तरफ आजी सास का वृतांत। माथा घूम गया, अब समझ आया उसे कि बच्चा पैदा करना बेहद जरुरी है वरना सास पागल हो जायेगी। साल भर बाद ज्योत्सना ने बेटे को जन्म दिया। सास ने अंग्रेजी बाबा बजवा कर ‘चमइया’ को कांची-पाकी मसाला चढ़ाया, बड़के तिवारी ने बारह गावों के ब्राहम्णों को महाभोज दिया।
  कुल परम्परा चलती रही। शादी के पन्द्रह साल बीत गये। ज्योत्सना अब दो सुन्दर बेटों की माँ थी। सास खुशी से मुसरन ढ़ोल बजातीं। चाची सास भी अब तक दो बेटों की माँ बन चुकी थी। जिस कुल में तीन पीढ़ियों से एक खूँट पर वंश बेल आगे बढ़ती थी वहाँ अब चारों भाईयों की वंश वृद्धि हो रही थी। ज्योत्सना हर साल छुट्टियों में घर आती, रास्ते में ‘चमइया का मन्दिर’ देख सभी गाड़ी में बैठे-बैठे हाथ जोड़ते। देखते ही देखते इन पन्द्रह सालों में ‘चमइया’ की महिमा पूरे इलाके में फैल गयी, तिवारीपुर के तिवारियों की कुल देवी ‘चमइया’ की कृपा से दरवाजे पर हंस लोटता है। सावन में आस-पास की औरतें कढ़ाई चढ़ाने लगीं। प्रेमी मन्नत का धागा बाँधने लगे। कोठरी भव्य मन्दिर में बदल गया। चुनमुन यादव के संरक्षण में हाट-बाजार सजने लगा। ‘चमइया’ के गीतों के कैसेट से बाजार पट गया। चमइया देवी शक्ति पीठ के नाम से जाना जाने लगा। औरतें उनके नाम पर अतवार का उपवास रख मन्नत रखने लगीं।लोक में आस्था ज्यों -ज्यों फैल रही थी तिवारी कुल में आगे पूजा का सरलीकरण बढ़ता जा रहा था।ज्योत्सना इस यात्रा को निरन्तर डायरी में दर्ज कर रही थी।

  ज्योत्सना के बाद सबसे पहले बड़े चाचा ससुर के बेटे का ब्याह हुआ। पति-पत्नी दोनों डॉक्टर, बहू को कुल परम्परा के अनुसार चमइया की पूजन विधि बताने की बारी आई। मन्दिर के पिछवाड़े वाले चोर दरवाजे पर नवेली दुल्हन को ले जाकर ज्योत्सना ने वही निर्देश दिया जो छोटी चाची ने किया। लड़की आवाक मुँह ताकने लगी। पुजइया हो गयी। साल भर बाद बहू ने बेटे को जन्म दिया।धीरे -धीरे पूजन विधि का पढ़ी- लिखी घर की औरतें सरलीकरण करती गयीं। आगे की पूजा भोग थाल से घट कर पान,फूल,बताशे पर आ गयी। ज्योत्सना के सामने महज तीस साल में एक अन्ध आस्था ऐसी रुढी बनकर उभर कि पूरे ससुराल क्षेत्र में कि आस्था का सैलाब उमड़ पड़ा। यह उसके लिए शोध का विषय था कि कैसे छोटे छोटे भ्रम भक्ति में और फिर अन्ध भक्ति में बदलते हैं।वह चुप चाप इस यात्रा को दर्ज करती रही और साठवे साल में उसकी आत्म कथा आई ‘‘देखो देखो चमइया हमार सुतूही।’’आज वह  छात्राओं के बीच अपनी आत्मकथा पर बात करते हुए समाज में फैले अन्ध आस्था में लिपटी अपनी जिन्दगी और पुन: उस भ्रम से बाहर निकलने की लम्बी दास्तान सुनाते -सुनाते भावुक हो उठी....बस मैं तुम सभी से आज इतना ही कहना चाहती हूँ कि सोचो,समझो और अपनी बात कहना सीखो।हम औरतों को पिता सत्ता ने ऐसे ही तमाम जंजीरों में जकड़ रखा है। ....अपनी इस यात्रा को इस तरह दुनिया के सामने लाना जोखिम भरा है....पर जो सहा न गया उसे कहा....आगे तुम सब को कहना है।
लड़कियाँ देर तक तालियाँ बजाती रहीं....ज्योत्सना को लगा ...मन से मनो बोझ उतर गया।

नोट : जातिसूचक शब्दों का प्रयोग यथार्थ के सन्दर्भ से है, लेखिका की उनसे कोई सहमति नहीं है

सोनी पाण्डेय