रविवार, 21 अक्तूबर 2018

जलेस लखनऊ आयोजन की रिपोर्ट


समकालीन कविता में स्त्री

कविता घुप्प अन्धेरे में आशा का टिमटिमाता एक कतरा उजास है।भारतीय परिवेश में स्त्री के हिस्से असंख्य बन्धनों से जकड़ी एक ऐसी दुनिया है जहाँ शिक्षा से लेकर खाने-पीने,पहनने-ओढ़ने,शादी तक के निर्णय का अधिकार पुरूषों के द्वारा थोपे जाते हैं।वह साक्षर हुई,लिखते-पढ़ते घर की देहरी लांघ देखते -देखते मध्य वर्ग एवं निम्न मध्य वर्ग की अर्थव्यवस्था का मेरूदंड बन गयी किन्तु उसकी कमाई पर मालिकाना हक आज भी बड़े पैमाने पर पुरूषों के हाथ में है ,ऐसे में उनके अन्दर की छटपटाहट तेज बढ़ी।वह अपनी बात कहने, सुनने ,सुनाने का रास्ता तलाशने लगी और एक खिड़की खुली सोशल मीडिया की।सोशल मीडिया ने स्त्रियों को अभिव्यक्ति का बड़ा मंच दिया और एक दम से हिन्दी जगत में कवयित्रियों की बड़ी फौज खड़ी हो गयी।अब समय है मूल्यांकन का।सवाल यह है कि जिस समय में एक साथ साठ से अधिक कवयित्रियाँ सक्रिय हों ,उनका लेखन कविता में कौन से नए वितान तान रहा है?

              इन बातों को केन्द्र में रख कर जनवादी लेखक संघ लखनऊ की इकाई ने अपने दो दिवसीय वार्षिक आयोजन में पूरे एक दिन का दो सत्र "समकालीन कविता में स्त्री" विषय फर केन्द्रित किया।यह किसी लेखक संगठन का पहला अवसर रहा जब मंच पूरी तरह युवा स्त्री लेखकों के हाथ था,यह पहल ही सर्व प्रथम स्वागत योग्य है कि वैचारिक लेखक संगठन ने स्त्रियों को मुख्यधारा से जोड़ने की बड़ी पहल की।कथित तमगे तो बहुत होंगे किन्तु प्रमाणित पहल यह लखनऊ में अपने आप में पहली रही।चर्चा सत्र की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध दलित लेखिका अनीता भारती ने की तथा संचालन डॉक्टर संध्या सिंह ने किया।मंच पर युवा लेखिका ज्योति चावला ,सोनी पाण्डेय, सुजाता और प्रतिभा कटियार मौजूद थीं।विषय प्रवर्तन सोनी पाण्डेय ने करते हुए कुछ सवाल खड़े किए,उन्होंने कहा कि आखिर कब तक स्त्री कविता रूदन पर केन्द्रित रहेगी,कब तक स्त्रियाँ लिखेंगी मैं नीर भरी दुख की बदरी,आज समय और समाज बदल चुका है,उसके संघर्ष के आयाम बदल चुके हैं,ऐसे में उसकी दृष्टि का विस्तार कब होगा?ज्यादातर स्त्रियाँ या तो प्रेम लिखती हैं या रूदन ,उनके पास अपनी भाषा का अभाव है,विचार का अभाव है ,जबकि कविता की सबसे बड़ी ताकत विचार होता है। 

           चूकीं आयोजन वैचारिक लेखक संगठन का था ,इस लिए कविता में विचार पक्ष की बात न हो यह संभव नहीं।एक तरफ स्त्रियाँ पुरूषों के समानांतर चलने की बात करती हैं और दूसरी तरफ स्त्री विमर्श का सुरक्षित क्षेत्र भी चाहती हैं ,ऐसे में पुरूष कविता के समानांतर उनका मूल्यांकन कैसे संभव है?इन पक्षों पर चर्चा को आगे बढ़ाते हुए डॉक्टर संध्या ने जरूरी बात कही कि" कहाँ तो हिन्दी कविता मीरा और महादेवी के स्वर में स्त्री की आन्तरिक चेतना का विद्रोह बनकर फूटी,वह अपनी बात कहने का साहस करते हुए आगे बढ़ी और कहाँ वह होना सोना दुश्मन के संग की ओर मुड़ कर देह विमर्श की बात करने लगी।नया ज्ञानोदय के नयी पीढ़ी की रचनाशीलता अंक में वरिष्ठ कवयित्री कात्यायनी भी इस पक्ष पर अपनी बात रखते हुए कहती हैं..."मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ेगा कि अपवादों को छोड़कर नयी पीढ़ी के सृजन का विचारात्मक आधार कमजोर है। उनमें न समाज की वैचारिकी की सुसंगत समझ है,न ही साहित्य की वैचारिकी की।इसका मूल कारण हमारी शिक्षा की पतनशीलता है।" कविता में जब तक विचार पक्ष मजबूत नहीं होगा,कविता की उम्र बड़ी नहीं होगी।समकाल में भले वह गोलबंदियों के आधार पर चर्चा पा जाए किन्तु आगे नकार दी जाएगी। हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ तेजी से उन्माद बढ़ रहा है,इतिहास के तथ्यों को उल्टा-पल्टा जा रहा है,लोग भीड़ में बदलकर न्याय कर रहे हैं,हर हाथ में हथियार है,समाज में हिंसा बढ़ी है।आम आदमी का जीवन संघर्ष बढ़ा है,स्त्रियों के साथ अपराध चरम पर है,ऐसे में केवल एक पक्षीय प्रेम या माँ,नानी,चाची का दुख लिखा जाए ,समझ से परे है।

एक बात  जो ध्यान खींचती है वह यह है कि औरतों में अस्तित्व बोध बढ़ा है...वह स्त्री मुद्दों पर सोशल मीडिया से लेकर ज़मीन तक प्रतिरोध दर्ज कर रहीं हैं,माना अभी इनकी संख्या इतनी नहीं की जुलूस में तब्दील हो सकें किन्तु व्यवस्था की जड़ में खटाई बखूबी ड़ाल रही हैं।इनका मुखर विरोध गद्य और पद्म दोनों विधाओं में सामने आ रहा है ,जिसमें गद्य की भाषा ज्यादा सशक्त है।प्रतिभा कटियार ने इन बिन्दुओं पर अपनी बात रखते हुए कहा-" समकालीन कविता में स्त्री एक जिद की तरह है,जब चारों तरफ समय विषमताओं से भरा हो स्त्री मिलन के सुख से भर जाना चाहती है,प्रेम को बचाए रखना चाहती है,क्या यह प्रतिरोध नहीं?बहस को आगे बढ़ाते हुए डॉक्टर संध्या ने कहा-स्त्री कविता को समझने के लिए आलोचकों को अपनी दृष्टि बदलनी होगी।एक विशेष चश्मे से देखने से इसके विस्तृत भाव पक्ष को अनदेखा ही छोड़ा जाता रहेगा।सुजाता ने कविता आलोचना को आड़े हाथ लेते हुए कहा कि स्त्री लेखन को लेकर जो एक बात सामने आती है वह यह कि यदि स्त्री लिख रही है तो उसे पढ़ेगा कौन?यह दोयम दर्जे का आचरण ही स्त्री कविता को रेखांकित करने में सबसे बड़ी बाधा है।स्त्री लेखन को लेकर लेखक संवर्ग कितना सजग है इसका तत्काल उदाहरण कैफी आज़मी सभागार था जिसमें पहले दिन के आयोजन में उपस्थित रहने वाले तमाम वरिष्ठों में अगले दिन केवल नरेश सक्सेना जी उपस्थित रहे।सुजाता ने आगे कहा कि हमारे यहाँ लैंगिक कविता को लेकर किलेबंदी बहुत जोरदार है,हर जगह पुरुषों का वर्चस्व कायम है।स्त्री लेखन तभी मुख्यधारा में आएगा जब स्त्रीयों के हाथ में संपादन से लेकर आलोचन तक सभी विधाएँ आएंगी और स्त्रियों को यह प्रयास करने होंगे।

                 युवा लेखिका ज्योति चावला ने सोनी पाण्डेय के सवालों को जायज ठहराते हुए कहा कि- यह सच है कि स्त्री कविता वर्ग संघर्ष से बहुत आगे नहीं बढ़ी है जिसका सबसे बड़ा कारण समाज में स्त्रियों के प्रति बढ़ रही हिंसा है।ऐसा नहीं है कि स्त्रियों को राजनीतिक या सामाजिक मुद्दे उद्वेलित नहीं करते,करते हैं ,किन्तु जैसे ही उसके प्रति संवेदनात्मक भाव उपजते हैं एक बच्ची,एक औरत,एक बुजुर्ग ,हमारे सामने लहूलूहान आ जाती है और हम दस कदम आगे बढ़ कर फिरसे वहीं लौट आते हैं जहाँ हमारे भावनात्मक लगाव हैं।महिलाएं राजनैतिक कविताएं लिख रही हैं किन्तु आलोचक आलोचना करते समय उनकी एक कमजोर कविता उठाकर पूरे लेखन को खारिज कर देतें हैं।स्त्री कविता के मूल्यांकन में आलोचकों की यह सबसे बड़ी साजिश है। परिचर्चा सत्र की अध्यक्षता कर रही अनीता भारती ने कहा विमर्श ब्राह्मणवाद की देन है और पुरूष पितृसत्ता का एक टूल्स मात्र है।हम कितना भी आदर्श गढ़ लें किन्तु यह कभी नहीं मान सकते की स्त्री का भी अपना एक वर्ग है और वह अपना वर्ग संघर्ष लिख रही है विमर्श नहीं।जब तक तमाम वर्ग संघर्षों की तरह स्त्रियाँ अपने वर्ग संघर्ष के टूल्स खुद विकसित नहीं करेंगी स्त्री मुक्ति की बात बेमानी है।

दूसरा सत्र कविता पाठ का रहा जिसमें कवियित्रियों ने स्त्री जीवन के विविध पहलुओं पर अपनी कविता पढ़ीं।कविता पाठ में अनीता भारती,अंजू शर्मा, ज्योति चावला, सोनी पाण्डेय, सुशील पुरी,सुजाता,नताशा,प्रतिभा कटियार,भावना मिश्रा,संध्या सिह,संध्या नवोदिता, डॉक्टर संध्या सिंह,रेनू राज सिंह,इन्दू श्रीवास्तव, माधवी मिश्रा, आभा खरे ने प्रतिभाग किया।जलेस का यह आयोजन निःसंदेह लखनऊ के सफल आयोजनों में दर्ज होगा जिसने समकालीन कविता में स्त्री विषय पर हिन्दी कविता को बहस की ओर मोड़ कर एक सार्थक शुरूआत की।

सोनी पाण्डेय